भारत मे नेहरु के
समय मे विज्ञान के संबंध में यह धारणा व्याप्त कर ली गई थी की पश्चिम का विज्ञान
ही श्रेष्ठ है जिन्हे भारत से हटाने के लिए हमें इतनी मेहनत करनी पड़ी और खून
बहाना पड़ा या इसलिए ‘पश्चिम जो कहे वही सही’ यह हीन भाव सर्वसाधारण मे बैठा दिया गया था, हमने उनके चिकित्सा ज्ञान (ऐलोपैथी) को
राष्ट्र चिकित्सा पद्धति बनाया, ऐलोपैथी को अपने स्वास्थ्य विज्ञान (आयुर्वेद) के आधार पर परखने की बजाय उल्टा
काम किया । भारतीय परम्पराओं को पश्चिम के जड़ विज्ञान से नहीं समझा जा सकता था, इसलिए उन्हें दक़ियानूसी, कालबाह्य, गँवारू आदि विशेषणों से मंडित कर त्याग दिया, ‘छोड़ो कल की बाते कल की बात पुरानी’जैसे गाने लोकप्रिय होने लगे और लोगो ने इसे अपना आदर्श मूल्य मान लिया ।
ऐसे लोग कहते है
की जो परम्पराएँ वर्षों से चली आ रही है वे बिना वैज्ञानिक आधार के है, यह सोच बहुत ही संकीर्ण हैं इस सोच ने हमारी
वह दृष्ठि छिन ली जो हमें हमारी परम्पराओं में छिपी वैज्ञानिकता का दर्शन कराती थी
। आइये उनमे से कुछ वैज्ञानिक आधार की परम्पराओं का वर्णन कराते है
खीर और मलेरिया:
हम सब जानते है की मच्छर काटने से मलेरिया होता है वर्ष मे कम से कम 700-800 बार तो मच्छर काटते ही होंगे अर्थात 70 वर्ष की आयु तक पहुंचते-पहुंचते लाख बार मच्छर काट लेते होंगे । लेकिन अधिकांश लोगो को जीवनभर में एक दो बार ही मलेरिया होता है सारांश यह है की मच्छर के काटने से मलेरिया होता है यह 1% ही सही है ।
हम सब जानते है की मच्छर काटने से मलेरिया होता है वर्ष मे कम से कम 700-800 बार तो मच्छर काटते ही होंगे अर्थात 70 वर्ष की आयु तक पहुंचते-पहुंचते लाख बार मच्छर काट लेते होंगे । लेकिन अधिकांश लोगो को जीवनभर में एक दो बार ही मलेरिया होता है सारांश यह है की मच्छर के काटने से मलेरिया होता है यह 1% ही सही है ।
लेकिन यहाँ ऐसे
विज्ञापनो की कमी नहीं है जो कहते है की एक भी मच्छर ‘डेंजरस’ है,
हिट लाओगे तो एक
भी मच्छर नहीं बचेगा अब ऐसे विज्ञापनो के झांसे मे आकर के करोड़ो लोग इस
मच्छर बाजार मे अप्रत्यक्ष रूप से शामिल हो जाते है । सभी जानते है बैक्टीरिया
बिना उपयुक्त वातावरन के नहीं पनप सकते जैसे दूध मे दही डालने मात्र से दही नहीं
बनाता,
दूध हल्का गरम
होना चाहिए,
उसे ढककर गरम
वातावरण मे रखना होता है । बार बार हिलाने से भी दही नहीं जमता ऐसे ही मलेरिया के
बैक्टीरिया को जब पित्त का वातावरन मिलता है तभी वह 4 दिन में पूरे शरीर में फैलता है नहीं तो
थोड़े समय में खत्म हो जाता है सारे मच्छरमार प्रयासो के बाद भी मच्छर और रोगवाहक
सूक्ष्म किट नहीं काटेंगे यह हमारे हाथ में नहीं लेकिन पित्त को नियंत्रित रखना
हमारे हाथ में तो है ?
अब हमारी
परम्पराओं का चमत्कार देखिये जिन्हे अल्पज्ञानी, दक़ियानूसी,
और पिछड़ेपन की
सोच कहके ,
षड्यंत्र फैलाया
जाता था ।
वर्षा ऋतु के
बाद शरद ऋतु आती है आकाश में बादल धूल न होने से कडक धूप पड़ती है जिससे शरीर में
पित्त कुपित होता है इसी समय गड्ढो मे जमा पानी के कारण बहुत बड़ी मात्र मे मच्छर
पैदा होते है इससे मलेरिया होने का खतरा सबसे अधिक होता है ।
खीर खाने से पित्त का शमन होता है । शरद में ही पितृ पक्ष (श्राद्ध) आता है
पितरों का मुख्य भोजन है खीर । इस दौरान 5-7 बार खीर खाना हो जाता है इसके बाद शरद पुर्णिमा को रातभर चाँदनी के नीचे चाँदी
के पात्र में रखी खीर सुबह खाई जाती है (चाँदी का पात्र न हो तो चाँदी का चम्मच खीर
मे डाल दे , लेकिन बर्तन मिट्टी या पीतल का हो, एल्यूमिनियम, प्लास्टिक, चीनी मिट्टी जहर है) यह खीर विशेष ठंडक पहुंचाती है । गाय के दूध
की हो तो अतिउत्तम,
विशेष गुणकारी
(आयुर्वेद मे घी से अर्थात गौ घी और दूध गौ का) इससे मलेरिया होने की संभावना नहीं
के बराबर हो जाती है
ध्यान रहे : इस
ऋतु में बनाई खीर में केसर और मेंवों का प्रयोग न करे ।
मलेरिया होने के
बाद कड़वी दवाइयाँ खाकर,
हजारों रूपए
खर्चकर,
जोखिम उठाकर ठीक
होने में अधिक वैज्ञानिकता हैं या स्वादिष्ट व पौष्ठिक खीर खाकर मलेरिया होने ही न
देने में अधिक वैज्ञानिकता ? आज भयंकर षड्यंत्र के तहत आयुर्वेद की शिक्षा नहीं दी जा रही है बड़ी धूर्तता
के साथ स्कूलो में यह धारणा बैठा दी गई है की आयुर्वेद मात्र जड़ी बूटी
चिकित्साशास्त्र है जबकि जड़ी बूटी तो मात्र आयुर्वेद का 10% ही है 90% आयुर्वेद तो हमारी समृद्ध परम्पराओं में है, जो वैज्ञानिक आधार सहित थी ।
अब इस लेख से कुछ प्रश्न पैदा होते है !
क्या सफाई कर्मी संस्थाए गड्ढो को इसलिए नहीं भरते ताकि कंपनियाँ लोगो को मलेरिया के डर के सहारे लूटे ? अभी तक किसी वैज्ञानिक ने मच्छर मरने का यंत्र क्यों नहीं बनाया ? इतनी भी योग्यता हमारे वैज्ञानिको मे नहीं है जिनके पुरखे विमानन शास्त्र का ज्ञान दुनिया को दें ? मच्छर मारक अगरबत्ती, क्रीम, टिकिया, दृव्य का बाजार लगभग 3.5 लाख करोड का है क्यूँ है इतना ?
क्या सफाई कर्मी संस्थाए गड्ढो को इसलिए नहीं भरते ताकि कंपनियाँ लोगो को मलेरिया के डर के सहारे लूटे ? अभी तक किसी वैज्ञानिक ने मच्छर मरने का यंत्र क्यों नहीं बनाया ? इतनी भी योग्यता हमारे वैज्ञानिको मे नहीं है जिनके पुरखे विमानन शास्त्र का ज्ञान दुनिया को दें ? मच्छर मारक अगरबत्ती, क्रीम, टिकिया, दृव्य का बाजार लगभग 3.5 लाख करोड का है क्यूँ है इतना ?
पकोड़ी और वाइरल:
घनघोर घटा और धुआंधार वर्षा होते ही लगभग
पूरे भारत में घर घर में कढ़ाई चढ़ जाती है और गरमा गरम पकोड़ियाँ उतरने लगती है ।
यह परंपरा वर्षो से चली आ रही है और करोड़ो लोगो द्वारा अपनाई गई है तो इसके पीछे
केवल स्वाद यही एक कारण नहीं है इसके पीछे बहुत बड़ा विज्ञान है ऐसी वर्षा के समय
मौसम एकदम बदल जाता है तापमान 15-20 डिग्री गिर जाता है हवा में एकदम नमी आ जाती है । जितना बड़ा परिवर्तन उतना
बड़ा उपाय करना चाहिए । ठंड से वात विकृत होता है यह सर्वविदित है, इसलिए जैसे ही पकौड़ियाँ खाते है वात तुरंत
नियंत्रित हो जाता है लेकिन गर्मी से वात कुछ देर ही नियंत्रित होता है, चिकनाई लंबे समय तक वात से रक्षा करती है और
वात के असंतुलन से होने वाले रोगों से बचाव हो जाता है वाइरस कब बढ़ते है ? जब अनुकूल वातावरण मिलता है जो वाइरस वर्षा
मे फेलते है वे गर्मी मे तो नहीं फेलते ? अनुकूल वातावरण नहीं मिलने पर वे बढ़ते नहीं पूरी प्रकृति का नियंत्रण तो
हमारे हाथ मे नहीं लेकिन हम अपने शरीर की प्रकृति नियंत्रित कर सकते है तो जब भी
वर्षा हो तेल मे तलकर जमकर पकौड़ियाँ खाये ।
सावधानी:
o
पकौड़ी खाने के बाद गरमागरम कढ़ी पी ले । पकौड़ी के ऊपर सादा पानी वायरल को
आमंत्रित करेगा इसलिए अच्छा है की पकौड़ी खाने से पहले जमकर पानी पिये ताकि पकौड़ी
खाने के 2
घंटे बाद तक
पानी नहीं पीना पड़े
o
पकौड़ियों मे प्याज का उपयोग न करें, क्योंकि प्याज वात को विकृत करता है और हमें वात को शांत करने के लिए पकौड़ी
खानी है
o पकौड़ी रिफाइंड तेल में नहीं बनाए, रिफाइंड तेल मे चिकनाई नहीं होती, और हमें चिकनाई की आवश्यकता है इसलिए
फिल्टर्ड तेल का उपयोग करें, घानी का तेल मिले तो अति उत्तम(रिफाइंड तेल सिर्फ नाम मात्र का तेल होता है बिना गुण – सुगंध वाला । )
No comments:
Post a Comment