Wednesday, July 17, 2013

कुंडलिनी - कोष - ग्रंथि भेद

कुंडलिनी का महत्व

कुंडलिनी शक्ति समस्त ब्रह्मांड में परिव्याप्त सार्वभौमिक शक्ति है जो प्रसुप्तावस्था में प्रत्येक जीव में विद्यमान रहती है। इसको प्रतीक रूप से साढ़े तीन कुंडल लगाए सर्प जो मूलाधार चक्र में सो रहा है के माध्यम से अभिव्यक्त किया जाता है।
तीन कुंडल प्रकृति के तीन गुणों के परिचायक हैं। ये हैं :-
सत्व (परिशुद्धता),
रजस (क्रियाशीतता और वासना) तथा
तमस (जड़ता और अंधकार
अर्द्ध कुंडल इन गुणों के प्रभाव (विकृति) का परिचायक है। कुंडलिनी योग के अभ्यास से सुप्त कुंडलिनी को जाग्रत कर इसे सुषम्ना में स्थित चक्रों का भेंदन कराते हुए सहस्रार तक ले जाया जाता है।

मनुष्य शरीर में मेरु -दंड छोटे -छोटे ३३ अस्थि खण्डों से मिलकर बना है | संतों के ऐसी मान्यता है की यह ३३ देवताओ का [८ वसु ,११ रूद्र ,१२ आदित्य ,ईंद्र और प्रजापति ] प्रति निधित्व करता है | इसमें उनकी शक्तियां बीज -रूप में उपस्थित रहती हैं | इसमें ईडा [ चंद्र नाड़ी ,नेगेटिव ] ; पिंगला [ सूर्य नाडी ,पोजीटीव ]
एवम दोनों के मिलने से सुषुम्ना तीसरी शक्ति पैदा होती है | यह त्रिवेणी मस्तिष्क के मध्य केंद्र से , ब्रह्मरन्ध्र से ,व् सहस्रार कमल से संबधित है | तथा मेरु दंड नुकीले अंत पर समाप्त हो जाती है | सुषुम्ना में वज्रा ,वज्रा में चित्रणी , और चित्रणी में ब्रह्म -नाडी रहती है | यह मस्तिष्क में पहुंचकर हजारों भागों में फैल जाती है | इसे सहस्र -दल कमल भी कहते हैं | विष्णुजी की शय्या शेषजी के हजारों फंनों पर होने का अलंकार भी इसी से लिया गया है | ब्रह्म -नाड़ी मेरु दंड के अंतिम भाग के पास एक काले वर्ण के शटकोण  वाले परमाणु से लिपटकर बंध जाती है | शरीर में प्राण इसी नाडी से बंधे रहते हैं | इसके गुंथन -स्थल को ' कुंडलिनी " कहते हैं | इसके साढ़े -तीन लपेटे हैं व मुंह नीचे को है |
इसको गुप्त शक्तियों की तिजोरी कहा जा सकता है | इसके छ: ताले लगे हुए है | इन्हें छ: चक्र [ मूलाधार, स्वाधिष्ठान  ,मणिपुर ,अनाहत ,विशुद्ध , आज्ञा कहते हैं | इनका वेधन करके जीव कुंडलिनी को जागृत कर सकता है |
इस भगवती कुंडलिनी की कृपा से साधक को सब कलाएं ,सब सिद्धियाँ प्राप्त हो जाती हैं | उसके लिए कोई वस्तु अप्राप्य नहीं रहती | इसे जागृत करना एक विज्ञान है  | गीता [ शलोक ६ /१४ ] में भगवान वज्रासन से कुण्डलिनी जागरण की विधि समझा रहे हैं | आसन की उष्णता से यह शक्ति जागृत होती है | जैसे कोई नागिन का सपोला कुंकुम में नहाया हो और गिंडी मारकर सो रहा हो | वैसी वह छोटी सी कुण्डलिनी साढ़े तीन गिंडी मारकर नीचे मुंह किये हुई सर्पिनी सी सोई रहती है | वह वज्रासन के दबाव से जग जाती है |
जैसे चारों और अग्नि के बीज में से अंकुर फूटे हों | वैसी वह शक्ति गिंडी को छोड़कर घूमती हुई नाभि -स्थान पर दिखाई देती है | वह हृदय -कमल के नीचे की वायु को चपेट लेती है | वह पृथ्वी व जल तत्व को खा डालती है | तब पूर्ण तृप्त होती है व सुषुम्ना नाडी के पास शांत हो रहती है | इस प्रकार इडा व पिंगला नाडियों के मिल जाने से ,तीनों ग्रंथियां खुल जाती है एवं चक्रों की छहों कलियाँ खिल जाती है | उस अवस्था में उपर की ओर से चंद्रामृत का सरोवर धीरे से कनिया कर कुण्डलिनी के मुंह में गिरता है | उससे शरीर में तेज प्रकट होता है | जैसे मानो आत्म -ज्योति का लिंग ही साफ़ कर रखा हो | मानो वह मूर्ति -मान शांति का ही स्वरूप हो तथा संतोष -रूपी वृक्ष का पौधा रोपा गया हो | या मूर्ति मान अग्नि ही स्वयम आसन पर बैठी हो | कुण्डलिनी जब चंद्रामृत पीती है तो साधक का शरीर ऐसा हो जाता है ,हथेलियाँ व तलुवे रक्त -कमल के समान हो जाते हैं |इस अवस्था में साधक को अनेक सिद्धियाँ प्राप्त हो जाती हैं | जब कुण्डलिनी मन व प्राण के साथ ह्रदय [ ब्रह्म - रंध्र ] में प्रवेश करती है , जहां चैतन्य निवास करता है , उस ह्रदय - रुपी भवन में यह कुण्डलिनी अपना तेज [ प्रकाश ] छोड़ देती है तथा प्राण रूप में स्थापित हो जाती है | मानो बिजली चमक कर आकाश में विलीन हो गई हो अथवा प्रकाश -रुपी झरना हृदय रुपी जमीन में समा गया हो | वैसे ही उस शक्ति का रूप शक्ति में ही लुप्त हो जाता है | इस प्रकार पिंड से पिंड का ग्रास का जो अभिप्राय है , यहाँ उसीका वर्णनं किया गया है | अर्थार्त ह्रदय में पृथ्वी तत्व को जल तत्व गला देता है , जल को तेज [ अग्नि ] सुखा देता है ,और तेज को वायु तत्व बुझा देता है | केवल वायु तत्व रह जाता है ,जो कुछ काल बाद आकाश में जा मिलता है तथा आत्मा परमात्मा में मिल जाता है | इसे ही ब्रह्म - प्राप्ति कहा गया है | वैराग्य एवं स्व -धर्म आचरण से ही ब्रह्म प्राप्ति की योग्यता प्राप्त हो सकती है |

महिषासुर मर्दिनी


हट - योग से कुंडलिनी जागरण को शास्त्रों में महिशासुर व देवी दुर्गा के युद्ध के प्रतीक रूप में बताया है |मन रुपी महिषासुर चंडी रुपी कुंडलिनी से लड़ने लगता है | देवी क्रुद्ध होकर  उसके वाहन महिष [ मन के संस्कारों ] को चबा डालती है | अंत में महिषासुर [ मन ] का वध होने पर वह चंडी की ज्योति में मिल जाता है | महाशक्ति का अंश होकर मुक्ति को प्राप्त कर लेता है |

कुंडलिनी  जागरण से ब्रह्म - रंध्र में ईश्वरीय दिव्य शक्ति के दर्शनं होते हैं और गुप्त सिद्धियाँ प्राप्त होती हैं | इसी बात को भगवान गीता [ श्लोक ६ /११ से श्लोक ६ /१६ ] में अष्टांग - योग में ,प्राणायाम द्वारा सिद्ध करने की विधि बताते हैं |

योग -वशिष्ट में आया है की मन का ब्रहम के साथ तादात्म्य संबंध है , ब्रह्म ही मन का आकार धारण करता है | अत: मन में अपार शक्तियां है | भगवान ने गीता में [ श्लोक १० /२२ ] भी मन को अपनी विभूति कहा है | परन्तु यह भी बताया की मैं  [ श्लोक १५ / १५ ; १८ / ६१ ; १० / २० ] सबके हृदय में सिथत हूँ | इससे ऐसा प्रतीत होता है की जहां हृदय शब्द कहा है , वहाँ उनका मतलब मन [ ब्रह्म - रंध्र ] से ही लेना चाहिए | अन्यत्र भी ब्रह्म - रंध्र में ही [ ब्रह्म { शिव } एवं कुंडलिनी { शक्ति } ] का मिलन बताया गया है |

मानव शरीर का महत्व

इस मानव देह में आत्मा के पांच आवरण हैं ,वे ही कोष कहलाते हैं | इन्हीं कोशों में अनंत शक्तियां [रिद्धि ,सिद्धि आदि ] छिपी हुई है , जिन्हें पाकर जीव धन्य हो जाता है | जो इनके रहस्य को जानता है ,वह निश्चय ही परम गति को प्राप्त करता है | वे निम्न हैं:-
[१ ] अन्नमय कोष:- मानव शरीर अन्न से बनता है अत: स्थूल शरीर को अन्नमय कोष कहा गया है | आसन ,उपवास ,तत्व -शुद्धि ,और तपश्या से इसकी शुद्धि होती है |
[२] प्राण -मय कोष:- अनमय कोष के भीतर प्रान-मय कोष है | पांच महाप्राण तथा पांच लघु प्राण से यह बना है | बांध, मुद्रा ,और प्राणायाम द्वारा यह कोष सिद्ध होता है |
[३] मनोमय - कोष:- चेतना का केन्द्र मन माना जाता है | इसके वश में होते ही महान अंत: शक्ति पैदा होती है | ध्यान ,त्राटक ,जप की साधना करने से मनोमय कोष अत्यंत उज्जवल
हो जाता है
[४] विज्ञान -मय कोष:- शरीर व् संसार का ठीक -ठीक ,पूरा -पूरा ज्ञान होने को ही विज्ञान कहा है | सो-अहम की साधना ,आत्म -अनुभूति और ग्रंथि -भेद की सिद्धि से विज्ञान -मय कोष प्रबुद्ध होता है |
[५] आनंद -मय कोष:- आनंद आवरण की उन्नति से अत्यंत शान्ति को देने वाली तुरिया -अवस्था साधक को प्राप्त होती है | नाद ,बिंदु ,और कला की पूर्ण साधना से साधक में
आनंद -मय कोष जागृत होता है |
विज्ञान -मय कोष आत्मा की निकटता के कारण अत्यंत प्रकाश -मय है | इसी में अहंता ,ममता ,कर्मफल ,करता -भोक्ता ,जाग्रत ,स्वप्न ,आदि अव्स्थायं ,सुख ,दू:ख ,रहते हैं |
भगवान की अनन्य -भक्ति से संसार से विरक्ती [ श्लोक १३ /१० ] का भाव हो जाता है एवं तत्व -ज्ञान की प्राप्ति हो जाती है | भक्त कभी भी अज्ञानी नहीं रहता ,उसे तो सब कुछ
भगवान की कृपा से मिल जाता है |
इस संसार में केवल मनुष्य -योनी ही कर्म -योनी होती है ,शेष सभी योनियाँ भोग -योनियाँ कहलाती हैं |

ग्रंथि - भेद

विज्ञान-मय कोष में तीन बंधन हैं ,जो भौतिक शरीर न रहने पर भी देव , गंधर्व ,यक्ष , भूत , पिशाच , आदि यौनिओ में भी वैसे ही बंधन बंधे रहते हैं | इन्हें रूद्र [ तम ] , विष्णु [ सत ] और बहम [ रज ] ग्रंथियां कहते हैं | अर्थात तम ,रज सत द्वारा स्थूल , सूक्ष्म , और कारण शरीर बने हुऐ हैं | इन तीन ग्रंथियों से ही जीव बंधा हुआ है | इन तीनों को खोलने की जिम्मेदारी का नाम ही पितृ - ऋण ,ऋषि -ऋण व देव -ऋण कहलाता है | तम को प्रकृति , रज को जीव और सत को आत्मा कहते हैं | संसार में तम को सांसारिक जीवन , रज को व्यक्तिगत जीवन व सत को आध्यात्मिक जीवन कह सकते हैं | देश ,जाती , और समाज के प्रति अपने कर्तव्य का पालन करना पितृ -ऋण से ,पूर्व -वर्ती लोगों के उपकारों से उरिण होने का मार्ग है | व्यक्तिगत जीवन को शारीरिक ,बौधिक और आर्थिक शक्तियों से सम्पन बनाना , अपने को मनुष्य - सुलभ गुणों से युक्त बनाना ऋषि ऋण से छूटना है | स्वाध्याय, सत्संग ,भक्ति ,चिंतन ,मनन ,आदि साधनाओं द्वारा काम ,क्रोध ,लोभ ,मोह ,मद ,मत्सर आदि को हटाकर आत्मा को निर्मल ,देव -तुल्य बनाना ,यह देव -ऋण से उरिण होना है |

साधक को विग्यान -मय कोष में तीनों गांठों का अनुभव होता है | प्रथम मूत्राशय के समीप [ रूद्र ] ,दूसरी आमाशय के उपर भाग में [ विष्णु ] और तीसरी शिर के मध्य केंद्र में [ब्रह्म ] ग्रंथि कहलाती है | इन्हें दूसरे शब्दों में महाकाली , महालक्ष्मी , महासरस्वती भी कहते हैं | प्रत्येक की दो दो सहायक ग्रन्थियाँ होती हैं | इन्हें चक्र भी कहते हैं |रूद्र की [ मूलाधार , स्वाधिष्ठान ] , विष्णु की [ मणिपुर , अनाहत ] , ब्रहम की [ विशुधि , आज्ञा ] चक्र कहा जाता है | हट -योग की विधि से भी इन छ: चक्रों का वेधन [ छिद्रण ] किया जाता है | सिद्धों ने इन ग्रंथियों की अंदर की झांकी के अनुसार शिव , विष्णु और ब्रह्मा के चित्रों का निरूपण किया है | एक ही ग्रंथी ,दायें भाग से देखने पर पुरुष - प्रधान ,व बाएं भाग से देखने पर स्त्री -प्रधान आकार की होती है | 

ब्रह्म - ग्रंथि मध्य -मस्तिष्क में है | इससे उपर सहस्रार शतदल कमल है | यह ग्रंथि उपर से चतुष्कोण [ चार कोने ] और नीचे से फ़ैली हुई है | इसका नीचे का एक तंतु ब्रह्म -रंध्र से जुडा हुआ है | इसी को सहस्रार -मुख वाले शेष -नाग की शयया पर सोते हुए भगवान की नाभि -कमल से उत्पन चार मुख वाला ब्रह्मा चित्रित किया गया है | वाम भाग में यही ग्रंथि चतुर्भुजी सरस्वती है | वीणा की झंकार से ओंकार - ध्वनी का यहाँ निरंतर गुंजार होता है |  यही तीन ग्रंथियां ,जीव को बांधे हुए हैं | जब ये खुल जाती हैं ,तो मुक्ति का अधिकार अपने आप मिल जाता है | इन रत्न -राशियों के मिलते ही शक्ति , सम्पनता ,और प्रज्ञा का अटूट भण्डार हाथ में आ जाता है | ये शक्तियां सम - दर्शी हैं | रावण जैसे असुरों ने भी शंकर जी से वरदान पाए थे | परन्तु अनेक देवताओं को भी यह सफलता नहीं मिली | इसमें साधक का पुरुषार्थ ही प्रधान है |

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