Tuesday, April 2, 2013

आयुर्वेद के मौलिक सिद्धांत ।

प्रश्न – गुण किन्हें कहते हैं ?
उत्तर – जिन लक्षणों से पद्धार्थ का अनुमान हो उन्हें गुण कहते हैं । शब्द (Sound), स्पर्श (Contact), रूप (Form), रस (Juice), गंध (Smell), गुरु (भारी, Heavy), लघु (हल्का, Light), शीत (ठंडा, Cold), उष्ण (गर्म, Hot), स्निग्ध (चिकना, Oily), रूक्ष (रूखा, Mangy), मन्द (धीमा, Slow), तीक्ष्ण (तेज, Fast), स्थिर (Stable) , सर (Unstable), मृदु (कोमल, Soft), कठिन (Hard), विशद (भुरभुरा, Brittle), पिच्छिल (चिपचिपा), श्लक्ष्ण (Smooth), खर (Rough), सूक्ष्म (Micro), स्थूल (Macro), सान्द्र (Humid), द्रव (Liquid); ये गुण हैं ।
प्रश्न – पंचमहाभूत क्या हैं ?
उत्तर – आकाश, वायु, अग्नि, जल तथा पृथ्वी की संज्ञा पंचमहाभूत है । प्रकृति में जो कुछ पद्धार्थ आदि पाया जाता है वह इन्हीं पांच तत्वों से बना है ।
पंचमहाभूतों में सब से पहले आकाश की ही उत्पत्ति होती है । आकाश का मुख्य गुण ‘शब्द’ है तथा शरीर में कर्णेन्द्रीय (कान) आकाश की ही अभिव्यक्ति है । जिन पद्धार्थों में मृदु, लघु, सूक्ष्म, श्लक्ष्ण, शब्द गुण बहुतायत से हों, उन्हें आकाशीय द्रव्य जानें ।
दूसरा पंचमहाभूत है वायु, इसकी उत्पत्ति आकाश से होती है अतःएव् इसमें आकाश के गुण भी पाये जाते हैं । वायु का मुख्य गुण ‘स्पर्श’ है तथा शरीरस्थ त्वगेन्द्रीय (त्वचा) वायु की ही अभिव्यक्ति है । जिन पद्धार्थों में लघु, सूक्ष्म, शीत, रूक्ष, खर, विशद, स्पर्श गुण बहुतायत से हों, उन्हें, वायव्य द्रव्य जानें ।
तीसरा पंचमहाभूत अग्नि है, इसकी उत्पत्ति वायु से होती है अतःएव् इसमें वायु एवं आकाश के गुण भी पाये जाते हैं । अग्नि का मुख्य गुण ‘रूप’ है तथा शरीरस्थ नेत्रेन्द्रीय (आंख) अग्नि की ही अभिव्यक्ति है । जिन पद्धार्थों में लघु, सूक्ष्म, उष्ण, रूक्ष, विशद, रूप गुण बहुतायत से हों, उन्हें आग्नेय द्रव्य जानें ।
चौथा पंचमहाभूत जल है, इसकी उत्पत्ति अग्नि से होती है अतःएव् इसमें अग्नि, वायु एवं आकाश के गुण भी पाये जाते हैं । जल का मुख्य गुण ‘रस’ है तथा शरीरस्थ जिह्वा (जीभ) जल की ही अभिव्यक्ति है । जिन पद्धार्थों में द्रव, स्निग्ध, शीत, मन्द, मृदु, पिच्छिल, रस गुण बहुतायत से हों, उन्हें आप्य (जलीय) द्रव्य जानें ।
पांचवां पंचमहाभूत पृथ्वी है, इसकी उत्पत्ति जल से होती है अतःएव् इसमें जल, अग्नि, वायु एवं आकाश के गुण भी पाये जाते हैं । पृथ्वी का मुख्य गुण ‘गंध’ है तथा शरीरस्थ घ्राण (नाक) पृथ्वी की ही अभिव्यक्ति है । जिन पद्धार्थों में गुरू, खर, कठिन, मन्द, स्थिर, विशद, सान्द्र, स्थूल, गंध गुण बहुतायत से हों, उन्हें पार्थिव द्रव्य जानें ।
मनुष्य जिस प्रकार के गुणों वाले पद्धार्थ का भोजन, मालिश आदि में प्रयोग करता है वैसे ही गुणों की शरीर में वृद्धि होती है ।
प्रश्न – दोष क्या हैं और वे आरोग्य को कैसे प्रभावित करते हैं ? रस क्या है, रस कितने प्रकार के हैं व रसों का प्रभाव क्या है ?
उत्तर – वात, पित्त तथा कफ; ये तीन ही दोष हैं । इनकी साम्यावस्था का नाम ही आरोग्य है । इन तीनों को समावस्था में रखना ही चिकित्सा शास्त्र का प्रयोजन है । बढ़े हुये दोषों को क्षीण करना तथा क्षीण हुये दोषों को बढ़ाना चाहिये ।
इन तीनों दोषों में वात ही प्रधान दोष है । सामान्यतः वात के कुपित रहते हुये पित्त व कफ को शांत करना सरल नहीं होता वात के शांत होने पर पित्त व कफ को सरलता से शांत किया जा सकता है ।
वात – रूक्ष, शीत, लघु, सूक्ष्म, चल, विशद, खर; ये वात के मुख्य गुण हैं । ऐसे ही गुणों वाले आहार (व कर्म) से वात कुपित होता है तथा विपरीत गुणों (स्निग्ध, उष्ण, गुरु, स्थूल, मृदु, पिच्छिल, श्लक्ष्ण) वाले द्रव्यों (व कर्म) से शांत होता है ।
पित्त – स्नेह युक्त, उष्ण, तीक्ष्ण, द्रव्य, अम्ल (खट्टा) रस , सर, कटु (कड़वा) रस ; ये पित्त के मुख्य गुण हैं । ऐसे ही गुणों वाले आहार (व कर्म) से पित्त कुपित होता है तथा विपरीत गुणों (स्निग्ध, शीत, मृदु, सान्द्र, कषाय (कसैला) रस, तिक्त (तीखा) रस, मधुर रस ) वाले द्रव्यों (व कर्म) से शांत होता है ।
कफ – गुरु, शीत, मृदु, स्निग्ध, मधुर रस, स्थिर, पिच्छिल; ये श्लेष्मा अर्थात कफ के मुख्य गुण हैं । ऐसे ही गुणों वाले आहार (व कर्म) से कफ कुपित होता है तथा विपरीत गुणों वाले द्रव्यों (व कर्म) से शांत होता है ।
ऊपर दोषों के वर्णन में कुछ रसों (मधुर, अम्ल आदि) का उल्लेख किया गया है । जिह्वा के ग्राह्य विषय का नाम ही रस है । रस छः हैं – 1. मधुर – यह पद्धार्थ में पृथ्वी व जल की अधिकता से बनता है 2. अम्ल (खट्टा) – यह जल व अग्नि की अधिकता से बनता है  3. लवण (नमकीन) – यह पृथ्वी व अग्नि की अधिकता से बनता है 4. कटु (कड़वा, नीम, गिलोय आदि)  – यह अग्नि व वायु की अधिकता से बनता है 5. तिक्त (तीखा, हरी मिर्च आदि) – यह वायु व आकाश की अधिकता से बनता है  6. कषाय (कसैला, आंवला, बहेड़ा आदि)  – यह पृथ्वी व वायु की अधिकता से बनता है ।
दोषों के ऊपर रसों का प्रभाव इस प्रकार है – मधुर, अम्ल व लवण, ये तीन रस वात-नाशक हैं तथा कटु, तिक्त व कषाय, ये तीन रस वात-कारक हैं । मधुर, तिक्त व कषाय, ये तीन रस पित्त-नाशक हैं तथा कटु, अम्ल व लवण, ये तीन रस पित्त-कारक हैं । कटु, तिक्त व कषाय, ये तीन रस कफ-नाशक हैं तथा मधुर, अम्ल व लवण, ये तीन रस कफ-कारक हैं ।
प्रश्न – आहार की मात्रा क्या है ?
उत्तर – ऊपर्युक्त विवरण से ऐसा आभास हो सकता है कि किसी बढ़े हुये दोष के निवारण के लिये उस दोष का नाश करने वाले आहार या द्रव्य का भरपेट सेवन किया जा सकता है ? इस तरह की धारणा गलत है । कारण कि आहार मात्रा अग्निबल की अपेक्षा रखती है । अग्निबल का तात्पर्य उस मात्रा से है जिसे शरीर सुगमता से पचा सके । सामान्यतः तृप्ति से ही अग्निबल का अनुमान लगाया जाता है और तृप्ति से अधिक खाना ही अधिकांश रोगों का कारण है ।  अग्निबल कम है तो मात्रा भी कम होगी, अग्निबल अधिक है तो मात्रा भी अपेक्षया अधिक होगी । मात्रा से कम खाने से केवल एक रोग होता है जिसे उदावर्त कहते हैं यह भी कष्टसाध्य होता है । लेकिन आहार मात्रा केवल अग्निबल की अपेक्षा नहीं रखती प्रत्युत द्रव्य की भी अपेक्षा रखती है । इसी लिये आहार को मुख्य रूप से दो प्रकार के भागों में विभक्त किया गया है – 1. गुरु द्रव्य (बादिकारक), इन में पृथ्वी व जल का अंश अधिक होता है 2. लघु द्रव्य (हल्के, सुपाच्य), इन में अग्नि व वायु का अंश अधिक होता है ।
गुरु द्रव्यों का पाक देर से होता है और लघु द्रव्यों का पाक शीघ्र होता है । गुरु द्रव्यों के अल्प मात्रा में सेवन से लघुता तथा लघु द्रव्यों के अतिमात्रा में सेवन से गुरुता हो जाती है । गुरु द्रव्यों की तृप्ति के चार भागों में से केवल तीन या दो भागों का सेवन करना चाहिये । गुरु द्रव्य को भरपेट न खाना चाहिये । लघु द्रव्यों को यद्यपि भरपेट खा सकते हैं तो भी लघु द्रव्यों से अतितृप्ति नहीं करनी चाहिये । उचित मात्रा में खाये जाने के उपरांत भी गुरु द्रव्य अधिक दोषकारक होते हैं क्योंकि उनमें पृथ्वी व जल अधिक होने से वे अग्निगुण के विरोधी होते हैं । जबकि उचित मात्रा में खाये जाने के उपरांत भी लघु द्रव्य अल्प दोषकारक होते हैं क्योंकि उनमें अग्नि व वायु अधिक होने से वे अग्निगुण के विरोधी नहीं होते ।
गुरु द्रव्य – पीठी या चावलों के आटे से बने पद्धार्थ, गुड़ खांड आदि ईख के रस से बने पद्धार्थ, रबड़ी खोआ आदि दूध से बने पद्धार्थ, उड़द, नवीन चावल, कमल नाल, भिस, भें, दही, जवी (Oats) । इनका प्रयोग निरंतर नहीं करना चाहिये  तथा इनका सेवन भोजन से पूर्व करना चाहिये भोजन के पश्चात नहीं ।
लघु द्रव्य – मूंग, सांठी के चावल, लाल चावल, सैंधा नमक, आंवला, जौ, दूध, घी, शहद । यद्यपि इन में कुछ द्रव्य गुरु हैं तो भी इनका निरंतर उपयोग कर सकते हैं ।
प्रश्न – भारतीय रसोई में प्रयुक्त होने वाले मसाले क्या द्रव्य हैं ?
उत्तर – भारतीय रसोई में प्रयुक्त होने वाले मसाले हैं – हींग, जीरा, धनिया, पोदीना, काली मिर्च, अजवायन, तेजपत्र, लौंग, जायफल, जावित्रि, केसर, सौंठ, पिप्पली, राई, मेथी, हल्दी, लहसुन, कढ़ीपत्ता, बड़ी ईलायची आदि । इन सभी में अग्नि का अंश अधिक होने के कारण ये आग्नेय द्रव्य कहलाते हैं । मनुष्य का स्वास्थय कायाग्नि के आश्रित है जबकि प्राकृत रूप से प्राप्त आहार द्रव्य दाल, सब्जी, गेहूं, चावल आदि पृथ्वी व जल प्रधान तत्वों से बना होता है जिन से अग्नि का विरोध होता है । इसी विरोध को कम करने के लिये आहार का संस्कार उपर्युक्त आग्नेय द्रव्यों द्वारा किया जाता है ताकि कायाग्नि पर प्रतिकूल प्रभाव न पड़े ।
प्रश्न – एक दिन-रात में कितनी बार भोजन करना सही है ?
उत्तर – एक दिन-रात (24 घंटे) में दो बार भोजन को उत्तम कहा गया है । पहला भोजन मध्याह्न के आस-पास व दूसरा भोजन संध्योपरांत रात्रि में । इन दोनों भोजनों में किसी एक बार ही भरपेट भोजन करे, शेष बारी में भूख से कुछ कम खाये ।
अगर भूख अधिक लगती हो और उपर्युक्त विधि का पालन कठिन मालुम पड़ता हो तो इस विधि में प्रातः नाश्ता या सांयः नाश्ता अथवा दोनों समय का नाश्ता शामिल कर सकते हैं । प्रातः नाश्ते का समय मध्याह्न भोजन से कम से कम एक प्रहर (3 घंटे) पहले होना चाहिये और सांयः नाश्ते का समय रात्रि भोजन से कम से कम एक प्रहर (3 घंटे) पहले होना चाहिये । 
प्रश्न – आहार की उचित विधि क्या है ?
उत्तर – शरीर की आहार नली में सबसे नीचे वात का आश्रय पक्कवाशय है । अतःएव आहार में सबसे पहले गुरु, स्निग्ध, मधुर गुण वाले द्रव्य खाने चाहिये क्योंकि ये गुण वात को शांत करते हैं । पक्कवाशय के ऊपर अग्नि स्थित है । चूंकि स्वास्थय की दृष्टि से अग्नि को स्थिर या बढ़ाना आवश्यक है । अतःएव तदनोपरांत उष्ण, अम्ल, लवण गुण वाले द्रव्य खाने चाहिये क्योंकि ये गुण अग्नि की वृद्धि करते हैं । अग्नि के ऊपर आमाशय में पित्त स्थित है । अतःएव तदनोपरांत कषाय व तिक्त रस वाले द्रव्य खाने चाहिये क्योंकि ये गुण पित्त को शांत करते हैं । पित्त के ऊपर कफ का स्थान है । चूंकि पित्त को शांत करने वाले कषाय व तिक्त रस वाले द्रव्य कफ को भी शांत करते तथापि कफ की विशेष शांति के लिये आहार के अंत में कटु रस का प्रयोग किया जा सकता है ।

प्रश्न – जल पान विधि क्या है ?
उत्तर – भोजन के पहले जल पीने से धातुऔं का ह्रास होता है । भोजन के मध्य में थोडा सा जल औषधरूप हो जाता है । भोजन के अंत में जल पीना दोषकारक है । आहार के जीर्ण हो जाने पर जलपान अमृत तुल्य हो जाता है ।

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