Sunday, November 25, 2012

माला की मणियो की १०८ संख्या का विज्ञान



माला की मणियो की १०८ संख्या का विज्ञान
जपने के लिए १०८ संख्या होती है | तदर्थ माला की आवश्यकता होती है | बिना संख्या के जप करना ठीक नहीं माना गया है | बृहत्पराशरस्मृति मे कहा है – ‘अप्समीपे जपं कुर्यात ससन्ख्यं तद्भवेत यथा, असन्ख्यमासुरं यस्मात तस्मात तद गणयेत ध्रुवं’ (४/४०) | अब वहा जपमाला के विषय मे कहा है- स्फाटीकेंद्राक्षरुद्राक्षक्षै: पुत्रजीवसमुद्भवै: अक्षमाला प्रकर्तव्या प्रशस्ता चोत्तरोत्तरा, अभावे तक्षमालायः कुशग्रन्थाय पाणिना यथा कथश्चिद गणयेत ससन्ख्यं तद्भवेत यथा | (/४१-४२ )
यहाँ रुद्राक्ष की  माला को अन्य मालाओ से श्रेष्ठ माना गया है | उसमे कीटाणुनाशिनी शक्ति भी हुआ करती है | सात्विक – विद्युत प्रदान शक्ति विज्ञान सम्मत होने से जप मे तुलसी की माला का उपयोग होता है | गले मे तुलसी आदि की कंठी पहनने का भी यही लाभ है, मौन रूप से जप करने से गले की नसों पर जोर पडता है जिससे गण्डमाला (thyroid) आदि रोग होंने की आशंका होती है | गले मे तुलसी की कंठी पड़ी रहने से गले से उसका स्पर्श होते रहने से इन रोगों के होने की आशंका खत्म हो जाती है |
माला मे तर्जनी अंगुली नहीं लगाई जाती यह ध्यान देने वाली बात है क्योकि तर्जनी अंगुली दूसरों को डाटने वाली , मारने आदि का भय देने वाली होने से पापयुक्ता व निकृष्ट होती है | और जप मे चाहिए पवित्रता; अतः तर्जनी अंगुली का माला मे स्पर्श नहीं कराया जाता |
अब माला के मणियों की १०८ संख्या के विषय मे जानना चाहिए :-
हमारे प्रत्येक पल मे ६ श्वास निकलते है | ढाई पल या एक मिनट मे १५ श्वास निकलते है | १ घंटे मे ९०० श्वास हो जाते है | १२ घंटो मे १०८०० श्वास हो जाते है ; और २४ घंटो मे २१६०० श्वास होते है| इन २४ घंटो मे श्वासो का आधा भाग यदि सोना , खाना तथा अन्य सांसारिक कार्यों के लिए रख दिया जाय
और शेष आधा समय परमार्थ-साधना का स्थिर किया जाय तो १२ घंटो का समय यानि १०८०० सांसो मे हमें अपने इष्टदेव को भी इतने बार स्मरण करना चाहिए ऐसा वेदों मे नियम बनाया गया |
यद्यपि दिन कभी १० घंटो का कभी १३ घंटो का भी होता है फिर भी उसका मध्य भाग १२ घंटो का है | रात विश्राम के लिए होती है उसमे रज तथा तमोगुण का बाहुल्य होता है अतः इष्टदेव के स्मरण के लिए दिन के घंटे ही ठीक माने गए है |
दिन के श्वास १०८०० माने गए है | परन्तु लोकयात्रा मे यदि इतना संभव नहीं है तो कम से कम उसके १०० वे भाग के बराबर तो भगवान का स्मरण करना ही चाहिए
, इसलिए १०८ बार जप करने का विधान रखा गया | इसकी पूर्ति के लिए १०८ मनको वाली माला का उपाय रखा गया |
उपान्शुस्यात
शतगुणाः, साहस्त्रोः मानसः स्मृतः – (मनु स्मृति २/८५) | यह जप की महिमा बताई गयी है | इसमे उपांशु (धीमे-धीमे) जप करने का फल १०० गुना बताया गया है और मन मे जप करने का फल १००० गुना | माला की मणिया १०८ होती है, उसके द्वारा उपांशु मंत्र जपने से १०० गुना फल होगा, तब १०८X१००=१०८०० यह पूर्वोक्त दिन के श्वासों की संख्या पूर्ण हो जाति है | इसी कारण माला के मणियों की संख्या १०८ रखना निराधार नहीं है |
यह भी जानना चाहिए कि वेदों मे माया का अंक ८ एवं ब्रह्म का अंक ९ माना गया है | इस पर गोस्वामी तुलसीदासजी ने मानस मे लिखा है कि माया मे परिवर्तन होता है ब्रह्म मे नहीं |
देखिये -
X १ =९
X २ =१८
X ३ =२७
यहाँ १८ मे १+८ के और २७ मे २+७ के जोडने पर मूलांक ९ ही होता है | इस प्रकार ९ के अग्रिम पहाड़े मे भी स्वयं  जाना जा सकता है | अब ८ के पहाड़े मे न्यूनाधिकता देखिये -
X  १ = ८
X  २ = १६ (१+६=७)
X  ३ = २४ (२+४=६)
X  ४ = ३२ (३+२=५)
X  ५ = ४० (४+०=४)
X  ६ = ४८ (४+८=१२, १+२=३)
X  ७ = ५६ (५+६=११, १+१=२)
X  ८ = ६४ (६+४=१०, १+०=१)
यहाँ एक ब्रह्म ही अवशिष्ट हुआ | ब्रह्म के अंक ९ मे तो विकार नहीं होता- इसलिए
 
X  ९ = ७२ (७+२=९) यह यहाँ प्रत्यक्ष है |
हिंदू जाति प्रारंभ से ही सूर्य की उपासक रही है | वेदों मे सूर्य के १२ भेद कहे गए है; उनमे १२वां  भेद विष्णु है | सूर्य की १२ ही रशिया होती है, सूर्य को भी वेदों मे ब्रह्म कहा गया है | तब १२ अंको वाले सूर्य का ९ अंक वाले ब्रह्म से गुणन होने पर १०८ संख्या बनती है, जो कि १+८ मिलकर ९ हो जाता है | ९ अंक ब्रह्म का प्रतीक है यह कहा ही जा चुका है |
इसके अतिरिक्त ब्रह्म अक्षरों के अनुसार भी १०८ संख्या का होता है -
‘क’ से लेकर ‘म’ तक २५ अक्षर है , ४ ‘य र ल व’ है और ४ ‘श ष स ह’ है | इस प्रकार कुल ३३ व्यंजन (
consonant) है |
 
क ख ग घ ङ   (१,२,३,४,५ )
 च छ ज झ ञ  (६,७,८,९,१० )
 ट ठ ड ढ ण  (११,१२,१३,१४,१५)
 त थ द ध न  (१६,१७,१८,१९,२०)
 प फ ब भ म  (२१,२२,२३,२४,२५)
 य र ल व  (२६,२७,२८,२९)
 श ष स ह  (३०,३१,३२,३३)
स्वर (vowels) ‘अ’ से ‘अः’ तक १६ है | उनका विशेष क्रम इस प्रकार है :-
                      (प्लुत)    (प्लुत)    अं  अः
                  १०  ११  १२       १३  १४         १५  १६
ए–ऐ और ओ-औ का  इ और उ से सम्बन्ध होने से उनका आगे क्रम रखा गया है | प्रसिद्ध क्रम यह है :-
             (प्लुत)    ॡ (प्लुत)                  अं   अः
                           १०        ११  १२  १३   १४  १५   १६
ब्रह्म शब्द मे ब र ह म ये वर्ण है – उनमे ब २३ संख्या का है र २७ का, ह की संख्या ३३ और म २५ संख्या का है | अ सर्वत्र व्यापक होने से प्रथक नहीं गिना जाता | २३+२७+३३+२५ जोडने से १०८ संख्या होती है | तब ब्रह्म के प्रतिपादक सूर्य का जप भी १०८ बार ठीक है |
इसी तरह इस संसार को भी वेदों मे ब्रह्म का प्रतीक कहा गया है | संसार शब्द मे स-अं-स–आ–र वर्ण है जहाँ स ३२ संख्या का, अं १५ , स ३२, आ २, र २७ मिलकर १०८ संख्या होती है | तब १०८ वाले संसार के हटाने के लिए, मुक्तिप्राप्त्यर्थ १०८ संख्या वाले ब्रह्म का जप भी ठीक ही है |
वेदों मे ‘सीताराम’ को भी ब्रह्म कहा गया है | यहाँ भी स ३२ , ई ४ , त १६, आ २, र २७, आ २, म २५ मिलकर ३२+४+१६+२+२७+२+२५=१०८ होता है | इसी प्रकार ‘रामकृष्ण’ भी ब्रह्म है | इसकी संख्या भी देखिये – र २७, आ २, म २५,
क १, र २७, ॠ ७ (प्रसिद्ध क्रम से ),ष ३१, ण १५  इनको जोडने पर भी १०८ ही आता है | इस प्रकार ‘राधाकृष्ण’  भी ब्रह्म है | र २७, आ २, ध १९, आ २, क १, ॠ ११ (विशेष क्रम से), ष ३१, ण १५ यहाँ भी १०८ संख्या ही बनती है |
इस प्रकार ‘कैलाशनाथ’ भी ब्रह्म है | इनकी संख्या भी देखिये – क १, ऐ ८ (विशेष क्रम से ), ल २८, आ २, श ३०, न २०  , आ २, थ १७ इनका भी जोड़ १०८ होता है | इस प्रकार ये सभी देवता एक ही ब्रह्म की सत्ता को प्रस्तुत करते है | अतः हम किसी की भी उपासना करे वो एक ही परब्रह्म को पहुचती है | यहाँ ध्यान देने वाली बात ये है कि प्राचीन काल मे ऋषियों ने  शब्दों की रचना करते समय भी यह ध्यान रखा था कि ब्रह्म को निरुपित करने वाले देवताओ के नाम जिन अक्षरों से बनें उनका योग भी १०८  यानि उस परब्रह्म को दर्शाये |
इस प्रकार माला के मणियों की संख्या का ब्रह्म से सम्बन्ध सिद्ध हुआ | जहाँ १०८ अंक १+८ जोड़कर ९ होता है जो कि ब्रह्म का अंक है | इस १०८, १८, ९ का ब्रह्म से सम्बन्ध  होने से अक्षय होने के कारण हमारे पूर्वजो ने भी ग्रन्थ आदि लिखते समय इसका ध्यान रखा | जैसे कि – श्री वेदव्यास जी ने पुराण भी लिखे १८ , उपपुराण भी १८ और औपपुराण भी १८ | महाभारत के पर्व भी १८, गीता मे भगवान श्रीकृष्ण के उपदेश भी १८ अध्यायो मे संगृहीत है | श्रीमद्भागवत के श्लोकों की संख्या भी १८००० है | गोस्वामी तुलसीदास जी ने भगवान राम की सेना मे वानर भी १८ पद्म बताये है | १८ का योग १+८=९ है जो कि ब्रह्म स्वरुप है यह कह ही चुके है |
युगों की संख्या भी ऐसी ही है -
सत्ययुग के वर्ष १७२८००० है, यहाँ  १+७+२+८ मिलाकर १८ योग होता है और १८ मे १+८ से ९ संख्या बनती है |
त्रेतायुग की वर्ष संख्या १२९६००० है , यहाँ १+२+९+६ का जोड़ १८ तथा १+८ मिलकर ९ होता है |
द्वापरयुग की वर्ष संख्या ८६४००० है यहाँ भी ८+६+४ का जोड़ १८ और १+८ का जोड़ ९ ही होता है |
कलियुग की वर्ष संख्या ४३२००० है यहाँ भी ४+३+२ मिलकर ९ अंक होता है |
चार युगों का जोड़ ४३२०००० (
4.32million)  होता है , यहाँ भी  ४+३+२ से ९ अंक होता है
७१ चतुर्युग बीत जाने पर एक मन्वंतर होता है जिसकी वर्ष संख्या ३०६७२००००
(306.72million)  है, यहाँ भी ३+६+७+२ =१८ और १+८ मिलकर ९ अंक प्राप्त होता है | प्रत्येक मन्वंतर के बाद एक संधिकाल होता है जो कि एक सत्ययुग के बराबर होता है | (इस संधि-काल में प्रलय होने से पूर्ण पॄथ्वी जलमग्न हो जाती है)
इस तरह ब्रह्मा के एक दिन मे १४ मन्वंतर और १५ संधिकाल होते है, जिसे एक कल्प कहा जाता है |
१५ संधियों का योग २५९२०००० (
25.92 million) वर्ष का है | यहाँ भी २+५+९+२=१८ , १+८ =९ संख्या होती है |
१४ मन्वन्तरो के कुल वर्ष है ४२९४०८०००० (
4.294 billion) | यहाँ भी ४+२+९+४+८=२७, २+७=९ अंक ही प्राप्त होता है |
इस तरह एक कल्प (१४ मन्वन्तर + १५ संधिकाल ) मे कुल ४३२००००००० (
4.32 billion) वर्ष होते है, यहाँ भी
४+३+२ से ९ अंक होता है | यह ब्रह्मा का एक दिन है, उतनी ही उसकी रात होती है | इस प्रकार ब्रह्मा के दिन-रात का जोड़ ८६४०००००० वर्ष का होता है | यहाँ भी ८+६+४ = १८ और १+८ = ९ अंक ही प्राप्त होता है | ब्रह्मा का एक मास २५९२००००००००
(259.2 billion) वर्ष का होता है | यहाँ भी २+५+९+२=१८ , १+८ =९ संख्या होती है | एक वर्ष उसका होता है – ३११०४०००००००० (3110.4 billion) , ब्रह्मा की आयु १०० वर्ष आंकी गयी है जो कि ३११०४०००००००० (311.04 trillion) वर्ष है, यहाँ भी जोड़ ९ होता है | और ९ अंक ब्रह्म का प्रतीक है | यह ९ अंक अक्षय होता है; इसलिए सत्ययुग का प्रारंभ अक्षय नवमी से मान जाता है |
आज भी कार्तिक शुक्ल नवमी को अक्षय नवमी कहते है |
इस ९ के ब्रह्म के अंक होने से महत्ता के कारण ही नव दुर्गा होती है | नवार्ण मंत्र के अक्षर भी ९ , ग्रह भी ९ ,
नक्षत्र २७ (२+७=९) है | ९ अंक होने से ही “
न क्षरतीति नक्षत्रं “ इस निर्वचन से नक्षत्र भी अक्षय होता है | राशियों के अक्षर भी ९ है | तीन व्याहतियों के साथ गायत्री मंत्र के अक्षर भी २७ (२+७=९) है, इसलिए उसका जपन १०८ बार भी १+८=९ होकर अक्षय फल वाला होता है |
महाभारत युद्ध मे मरने से बचे भी ९ ही लोग थे , पांच पांडव, श्रीकृष्ण, अश्वत्थामा, कृपाचार्य और कृतवर्मा | हमारे शरीर मे छिद्र भी ९ है |
२७ नक्षत्र होते है, प्रत्ये नक्षत्र के ४ चरण होते है इस तरह उनका भी गुणनफल २७
X ४=१०८ हुआ | इस तरह से नक्षत्रो की  माला के १०८ संख्या वाला होने से जपमाला की मणियों की संख्या भी १०८ है | ब्रह्माण्ड मे नक्षत्र माला का जहाँ दोनों ओर से सम्मलेन होता है वह सुमेरु पर्वत होता है, ऐसा वेदों मे कहा गया है | इसी प्रकार जपमाला का संयोजन स्थान भी सुमेरु है|
सुमेरु को लांघना नहीं पडता, इस प्रकार ९ अंक तथा उसके प्रतिनिधि ब्रह्म को भी लांघना ठीक नहीं होता | ठीक नहीं होता क्या,  लांघा नहीं जा सकता | ऐसा कहा जाता है कि सुमेरु पर्वत का भी कोई अतिक्रमण नहीं कर सकता |
कुछ और १०८ सम्बंधित तथ्य इस प्रकार है :-
·      संस्कृत में 54 अक्षर पाए जाते हैं और हर अक्षर के पुरुष और स्त्री लिंग भेद 108 होते हैं | इस तरह से संस्कृत भाषा में 108 विभिन्न अक्षरों का प्रयोग होता है |
·      शास्त्रों के अनुसार मनुष्यों में 108 भौतिक कामनाएं होती हैं और वह 108 तरह के झूठ बोल सकता है |
·      हृदय चक्र से 108 नाड़ियाँ संचालित होती है | इनमें सबसे महत्वपूर्ण सुषुम्ना नाडी है, जो सहस्रार  चक्र तक जाति है |
·      श्रीयंत्र में 54 बिंदु होते हैं जहां पर 3 रेखाएं जिन्हें मर्म कहते हैं , मिलती हैं |हर बिंदु के पुरुष वाचक और स्त्री वाचक दो भेद होते हैं | इस तरह से श्री यंत्र में 108 मर्म पाए जाते हैं |
·      मनुष्य के मन में भूत , वर्त्तमान और भविष्य काल से सम्बंधित भावनाएं होती हैं | कहते हैं कि हर काल से संबधित 36 भावनाएं होती हैं | इस तरह कुल 108 भावनाएं होती हैं |
·      रसायन शास्त्र के अनुसार 108 तत्व हैं जो पृथ्वी पर मुक्त अवस्था में पाए गए हैं | (Interestingly, there are about 115 elements known on the periodic table of the elements. Most of those, around or higher than the number 108 only exist in the laboratory, and some for only thousandths part of a second. The number that naturally exist on Earth is around 108)
·      पृथ्वी की सूर्य से दूरी सूर्य के व्यास की 108 गुना है
(The distance between the earth and the sun equals about 108 times the sun's diameter)
·      सूर्य का व्यास पृथ्वी के व्यास का 108 गुना है |sun's diameter approximately equals 108 times the earth's diameter.)
·      पृथ्वी से चन्द्रमा की दूरी भी चन्द्रमा के व्यास का 108 गुना है| (the distance between the earth and the moon equals about 108 times the moon's diameter.)
·      पवित्र गंगा नदी का विस्तार १२° देशांतर ( ७९- ९१ ) से ° (२२-३१) अक्षांश तक है जो कि कुल विस्तार १२ X ९=१०८° है | (The sacred River Ganga spans a longitude of 12 degrees (79 to 91), and a latitude of 9 degrees (22 to 31). 12 times 9 equal 108.)
·      If one is able to be so calm in meditation as to have only 108 breaths in a day, enlightenment will come.
·      The angle formed by two adjacent lines in a pentagon equals 108 degrees.
·      There are said to be 108 Indian goddess names
·      भगवान कृष्ण की गोपियों की संख्या भी १०८ कही गयी है |
·      भारत मे १०८ प्रकार के नृत्य कहे गए है
·      संयोग से प्रथम बार अंतरिक्ष की यात्रा करने वाला मानव यूरी गगारिन ने १०८ मिनिट तक ही  अंतरिक्ष की यात्रा तय की | (The first manned space flight lasted 108 minutes, and was on April 12, 1961 by Yuri Gagarin, a Soviet cosmonaut.)
·      यहाँ तक की थर्मामीटर का उच्चतम तापमान भी १०८ डिग्री F ही होता है | ऐसा कहा जाता है की १०८ डिग्री F बुखार होने पर व्यक्ति की मृत्यु हो जाति है |
उपरोक्त अभी हमने १०८, १८ या ९ इस ब्रह्म के अंक के महत्व के बारे मे चर्चा की | परन्तु मानव जीवन मे १०८ मणियों की माला जपने का क्या उद्देश्य है आइये अब इस पर चर्चा करते है –
सृष्टि की उत्पत्ति – प्रलय  को परोक्षता से  १०८ रूप मे कहा गया है | गीता मे भगवान कहते है  
“अहं कृत्स्नस्य जगतः प्रभवः प्रलयस्तथा “ (७/६) अर्थात समस्त जगत की उत्पत्ति और प्रलय मैं ही हूँ | और फिर कहा है – ‘मयि सर्वमिदं प्रोतं सूत्रे मणिगणा इव’ (७/७) अर्थात यह सम्पूर्ण जगत मुझ परमेश्वर मे ऐसे पिरोया हुआ है जैसे सूत्र मे मणिया | यहाँ माला का स्वरुप बता दिया गया |
अर्थात दोनों (परा, अपरा ) प्रकृतिरूप मणिया परमेश्वर रूप सूत्र से गुथी हुई है – यही मणि माला का सूत्र है |
भगवान ने जगदुत्पत्तिरूप अपरा प्रकृति का वर्णन ८ भेदों मे किया है | ‘
भूमिरापोनलो वायुः खं मनो बुद्धिरेव च, अहंकार इतीयं मे भिन्ना प्रकृतिरष्टधा’ (गीता ७/४)| यहाँ मन से अहंकार का , बुद्धि से महत्व का और अहंकार से अव्यक्त का तात्पर्य है |
दूसरी प्रकृति परा है – ‘
अपरेयामितस्त्वन्यां प्रकृतिं विद्धि मे परां, जीवभूतां महाबाहो ययेदं धार्यते जगत’ (७/५) |
अपरा प्रकृति के ८ भेद बताये है, इनके गुण भिन्न-भिन्न संख्या के होते है -
प्रकृतियो को पैदा करने वाला मूल है  ब्रह्म , वह है एक एवं सत् | उससे उत्पन्न अहंकार (अव्यक्त प्रकृति) दूसरी संख्या मे है , इसके २ गुण है – एक ब्रह्म का और दूसरा उसका अपना आवरण | उससे उत्पन्न बुद्धि (महान) ३ गुणों वाली होती है , पहले वाले २ गुण और तीसरा उसका अपना, विक्षेप | मन ब्रह्म का चौथा विकार है; उसके ४ गुण होते है ३ पहले के और चौथा उसका अपना, मल | पांचवां विकार ख (आकाश) ५ गुणों वाला होता है, ४ पहले के गुण और एक उसका अपना | इसी प्रकार आगे भी जानना चाहिए | छठा विकार वायु है उसके ६ गुण होते है | सातवा  विकार है अनल (अग्नि), उसके ७ गुण है |
आठवां विकार है जल ; इसके ८ गुण है | नौवां विकार है भूमि (पृथ्वी) उसके ९ गुण है |
यहि बात मनुस्मृति मे भी कही गयी है, बाद का गुण अपने से पहले के गुण को भी ले लेता है | अतः जो जितनी संख्या वाला है उसके उतने ही गुण है |
इस अष्टधा प्रकृति से ही समस्त ब्रह्माण्ड की सृष्टि होती है | यह संसार बंधनरूप अपरा प्रकृति है | इसमे ब्रह्म के एक भेद को तो गिनना नहीं है; वह तो माला मे सुमेरुस्थानीय है उसे गिना नहीं जाता |
शेष अष्टधा प्रकृति के २+३+४+५+६+७+८+९=४४ कुल भेद हुए | ब्रह्म की परा प्रकृति जीवरूपा कही गयी है | वह जीव अपरा प्रकृति से निर्मित सम्पूर्ण अपरा प्रकृतिरूप ९ गुणों वाले जगत को धारण कर लेता है अतः दसवां होने से १० गुणों वाला होता है|
९ पहले के गुण और १० वां  उसका अपना | पहले के ४४ और ये १० गुण मिलकर हो गए ५४ | यह मणियों की आधी माला तैयार हो गयी | यह आधी संख्या केवल उत्पत्ति की है | उत्पत्ति के विपरीत प्रलय होता है, उसकी भी संख्या ५४ होगी | जिसमे ये सारे ५४ गुण पुनः ब्रह्म मे विलीन हो जाते है  | इस प्रकार १०८ मणियों की माला हो जाती है |
गीता मे यहाँ बताया गया है कि मुझ परमेश्वर से अतिरिक्त जगत का कारण अन्य कुछ भी नहीं है | यही एक माला का सुमेरु हुआ | प्रलयोत्पत्ति का उदाहरण केवल व्यावहारिक है ; सुमेरु जीव-ब्रह्म की एकता बताता है | जीव और ब्रह्म मे अंतर यही है कि ब्रह्म की संख्या १ है और जीव की १० | यहं १० मे शून्य माया का प्रतीक है | जब तक वह जीव के साथ है तब तक जीव बंधन मे है | जब उस मायारूप शून्य को जीव त्याग देता है, तब वह भी १ हो जाने से ब्रह्म हो जाता है अर्थात ब्रह्म मे विलीन हो जाता है |
माला का भी यही उद्देश्य है कि - जीव जब तक १०८ मणियों का विचार नहीं करता और कारणस्वरूप सुमेरु (ब्रह्म) तक नहीं पहुचता , तब तक इस १०८ मे घूमता रहता है | जब सुमेरुरूप  अपने वास्तविक स्वरुप को प्राप्त कर लेता है; तब १०८ से निवृत्त हो जाता है | माला समाप्त हो जाती है | सुमेरु को फिर लांघा नहीं जाता | जो तात्पर्य प्रलय-उत्पत्ति का है, वही १०८ संख्या की माला के जप का भी है | जिस प्रकार जीव ब्रह्म हो जाने पर उत्पत्ति-प्रलय से निवृत्त हो जाता है उसी प्रकार ब्रह्म स्थानीय सुमेरु प्राप्त होने पर माला की आवृत्ति से भी निवृत्त हो जाता है |जब तक वह ब्रह्म भाव प्राप्त न हो तब तक १०८ मणियों की माला की आवृत्ति होती रहेगी, अर्थात जन्म-मरण का चक्र चलता रहेगा | जब व्यक्ति माला के समाप्त होने पर भी जप करता रहता है; तब सुमेरु को लांघा नहीं जाता परन्तु  उसे उलटकर फिर शुरू से १०८ का चक्र (उत्पत्ति-प्रलय) प्रारंभ कर देता है |
यह जगत परमेश्वर से ही उत्पन्न, परमेश्वर मे ही स्थित और परमेश्वर मे ही विलीन होता है | यही भाव माला का सूत्र प्रदर्शित करता है |