Thursday, May 23, 2013

देवीय शक्ति से साक्षात्कार कराते मंत्र

मंत्रों का प्रयोग मानव ने अपने कल्याण के साथ-साथ दैनिक जीवन की संपूर्ण समस्याओं के समाधान हेतु यथासमय किया है और उसमें सफलता भी पाई है, परंतु आज के भौतिकवादी युग में यह विधा मात्र कुछ ही व्यक्तियों के प्रयोग की वस्तु बनकर रह गई है।

मंत्रों में छुपी अलौकिक शक्ति का प्रयोग कर जीवन को सफल एवं सार्थक बनाया जा सकता है। सबसे पहले प्रश्न यह उठता है कि 'मंत्र' क्या है, इसे कैसे परिभाषित किया जा सकता है। इस संदर्भ में यह कहना उचित होगा कि मंत्र का वास्तविक अर्थ असीमित है। किसी देवी-देवता को प्रसन्न करने के लिए प्रयुक्त शब्द समूह मंत्र कहलाता है। जो शब्द जिस देवता या शक्ति को प्रकट करता है उसे उस देवता या शक्ति का मंत्र कहते हैं। मंत्र एक ऐसी गुप्त ऊर्जा है, जिसे हम जागृत कर इस अखिल ब्रह्मांड में पहले से ही उपस्थित इसी प्रकार की ऊर्जा से एकात्म कर उस ऊर्जा के लिए देवता (शक्ति) से सीधा साक्षात्कार कर सकते हैं।

ऊर्जा अविनाशिता के नियमानुसार ऊर्जा कभी भी नष्ट नहीं होती है, वरन्‌ एक रूप से दूसरे रूप में परिवर्तित होती रहती है। अतः जब हम मंत्रों का उच्चारण करते हैं तो उससे उत्पन्न ध्वनि एक ऊर्जा के रूप में ब्रह्मांड में प्रेषित होकर जब उसी प्रकार की ऊर्जा से संयोग करती है तब हमें उस ऊर्जा में छुपी शक्ति का आभास होने लगता है। ज्योतिषीय संदर्भ में यह निर्विवाद सत्य है कि इस धरा पर रहने वाले सभी प्राणियों पर ग्रहों का अवश्य प्रभाव पड़ता है।

चंद्रमा मन का कारक ग्रह है और यह पृथ्वी के सबसे नजदीक होने के कारण खगोल में अपनी स्थिति के अनुसार मानव मन को अत्यधिक प्रभावित करता है। अतः इसके अनुसार जो मन का त्राण (दुःख) हरे उसे मंत्र कहते हैं। मंत्रों में प्रयुक्त स्वर, व्यंजन, नाद व बिंदु देवताओं या शक्ति के विभिन्न रूप एवं गुणों को प्रदर्शित करते हैं। मंत्राक्षरों, नाद, बिंदुओं में दैवीय शक्ति छुपी रहती है।
मंत्र उच्चारण से ध्वनि उत्पन्न होती है, उत्पन्न ध्वनि का मंत्र के साथ विशेष प्रभाव होता है। जिस प्रकार किसी व्यक्ति, स्थान, वस्तु के ज्ञानर्थ कुछ संकेत प्रयुक्त किए जाते हैं, ठीक उसी प्रकार मंत्रों से संबंधित देवी-देवताओं को संकेत द्वारा संबंधित किया जाता है, इसे बीज कहते हैं। विभिन्न बीज मंत्र इस प्रकार हैं :

ॐ- परमपिता परमेश्वर की शक्ति का प्रतीक है।
ह्रीं- माया बीज,
श्रीं- लक्ष्मी बीज,
क्रीं- काली बीज,
ऐं- सरस्वती बीज,
क्लीं- कृष्ण बीज।

मंत्रों में देवी-देवताओं के नाम भी संकेत मात्र से दर्शाए जाते हैं, जैसे राम के लिए 'रां', हनुमानजी के लिए 'हं', गणेशजी के लिए 'गं', दुर्गाजी के लिए 'दुं' का प्रयोग किया जाता है। इन बीजाक्षरों में जो अनुस्वार (ं) या अनुनासिक (जं) संकेत लगाए जाते हैं, उन्हें 'नाद' कहते हैं। नाद द्वारा देवी-देवताओं की अप्रकट शक्ति को प्रकट किया जाता है।

लिंगों के अनुसार मंत्रों के तीन भेद होते हैं-

पुर्लिंग : जिन मंत्रों के अंत में हूं या फट लगा होता है।
स्त्रीलिंग : जिन मंत्रों के अंत में 'स्वाहा' का प्रयोग होता है।
नपुंसक लिंग : जिन मंत्रों के अंत में 'नमः' प्रयुक्त होता है।

अतः आवश्यकतानुसार मंत्रों को चुनकर उनमें स्थित अक्षुण्ण ऊर्जा की तीव्र विस्फोटक एवं प्रभावकारी शक्ति को प्राप्त किया जा सकता है। मंत्र, साधक व ईश्वर को मिलाने में मध्यस्थ का कार्य करता है। मंत्र की साधना करने से पूर्व मंत्र पर पूर्ण श्रद्धा, भाव, विश्वास होना आवश्यक है तथा मंत्र का सही उच्चारण अति आवश्यक है। मंत्र लय, नादयोग के अंतर्गत आता है। मंत्रों के प्रयोग से आर्थिक, सामाजिक, दैहिक, दैनिक, भौतिक तापों से उत्पन्न व्याधियों से छुटकारा पाया जा सकता है। रोग निवारण में मंत्र का प्रयोग रामबाण औषधि का कार्य करता है। मानव शरीर में 108 जैविकीय केंद्र (साइकिक सेंटर) होते हैं जिसके कारण मस्तिष्क से 108 तरंग दैर्ध्य (वेवलेंथ) उत्सर्जित करता है।
शायद इसीलिए हमारे ऋषि-मुनियों ने मंत्रों की साधना के लिए 108 मनकों की माला तथा मंत्रों के जाप की आकृति निश्चित की है। मंत्रों के बीज मंत्र उच्चारण की 125 विधियाँ हैं। मंत्रोच्चारण से या जाप करने से शरीर के 6 प्रमुख जैविकीय ऊर्जा केंद्रों से 6250 की संख्या में विद्युत चुम्बकीय ऊर्जा तरंगें उत्सर्जित होती हैं, जो इस प्रकार हैं :

मूलाधार 4×125=500
स्वधिष्ठान 6×125=750
मनिपुरं 10×125=1250
हृदयचक्र 13×125=1500
विध्रहिचक्र 16×125=2000
आज्ञाचक्र 2×125=250
कुल योग 6250 (विद्युत चुम्बकीय ऊर्जा तरंगों की संख्या)

भारतीय कुंडलिनी विज्ञान के अनुसार मानव के स्थूल शरीर के साथ-साथ 6 अन्य सूक्ष्म शरीर भी होते हैं। विशेष पद्धति से सूक्ष्म शरीर के फोटोग्राफ लेने से वर्तमान तथा भविष्य में होने वाली बीमारियों या रोग के बारे में पता लगाया जा सकता है। सूक्ष्म शरीर के ज्ञान के बारे में जानकारी न होने पर मंत्र शास्त्र को जानना अत्यंत कठिन होगा।

मानव, जीव-जंतु, वनस्पतियों पर प्रयोगों द्वारा ध्वनि परिवर्तन (मंत्रों) से सूक्ष्म ऊर्जा तरंगों के उत्पन्न होने को प्रमाणित कर लिया गया है। मानव शरीर से 64 तरह की सूक्ष्म ऊर्जा तरंगें उत्सर्जित होती हैं जिन्हें 'धी' ऊर्जा कहते हैं। जब धी का क्षरण होता है तो शरीर में व्याधि एकत्र हो जाती है।

मंत्रों का प्रभाव वनस्पतियों पर भी पड़ता है। जैसा कि बताया गया है कि चारों वेदों में कुल मिलाकर 20 हजार 389 मंत्र हैं, प्रत्येक वेद का अधिष्ठाता देवता है। ऋग्वेद का अधिष्ठाता ग्रह गुरु है। यजुर्वेद का देवता ग्रह शुक्र, सामवेद का मंगल तथा अथर्ववेद का अधिपति ग्रह बुध है। मंत्रों का प्रयोग ज्योतिषीय संदर्भ में अशुभ ग्रहों द्वारा उत्पन्न अशुभ फलों के निवारणार्थ किया जाता है। ज्योतिष वेदों का अंग माना गया है। इसे वेदों का नेत्र कहा गया है। भूत ग्रहों से उत्पन्न अशुभ फलों के शमनार्थ वेदमंत्रों, स्तोत्रों का प्रयोग अत्यन्त प्रभावशाली माना गया है।

उदाहरणार्थ आदित्य हृदयस्तोत्र सूर्य के लिए, दुर्गास्तोत्र चंद्रमा के लिए, रामायण पाठ गुरु के लिए, ग्राम देवता स्तोत्र राहु के लिए, विष्णु सहस्रनाम, गायत्री मंत्रजाप, महामृत्युंजय जाप, क्रमशः बुध, शनि एवं केतु के लिए, लक्ष्मीस्तोत्र शुक्र के लिए और मंगलस्रोत मंगल के लिए। मंत्रों का चयन प्राचीन ऐतिहासिक ग्रंथों से किया गया है। वैज्ञानिक रूप से यह प्रमाणित हो चुका है कि ध्वनि उत्पन्न करने में नाड़ी संस्थान की 72 नसें आवश्यक रूप से क्रियाशील रहती हैं। अतः मंत्रों के उच्चारण से सभी नाड़ी संस्थान क्रियाशील रहते हैं।

Wednesday, May 15, 2013

भारतीय जीवन-मूल्य (Values)

प्रायः मैंने लोगो को भारतीय जीवन मूल्य (Values) के बारे मे बोलते हुए सुना है | हम अक्सर अपने आप को हमारे जीवन मूल्यों (Values) के आधार पर पाश्चात्य सभ्यता  से अलग और उच्च कोटि का मानते है| आपने प्रायः लोगो को यह कहते  हुए सुना होगा  कि  जो हमारे पास  वेल्यूज़ है वो किसी और देश जैसे अमेरिका या यूरोप मे किसी के पास नहीं है | परन्तु जब भी मैंने हमारी इन तथाकथित वेल्युज को जानना चाहा या  यूँ कहें कि ये वेल्यूज़ कौन - कौन  सी है, तो उत्तर मे मुझे २ - ४  ही सुनने को मिलती है | जैसे- हमारे यहाँ परिवार व्यवस्था है , अतिथि का सम्मान,  बड़ो का आदर आदि |
मुझे लगा कि क्या बस इन कुछ  जीवन मूल्यों के आधार पर ही हम और देशो से अलग और महान है?
संयोग से इस प्रश्न का उत्तर मुझे डॉक्टर धर्मपाल सैनी जी के एक लेख मे मिला |

आज मैं उस लेख के आधार पर आप को भारतीय जीवन मूल्यों से परिचित कराने का प्रयास कर रहा हूँ|
मानव को सच्चे अर्थो मे मानव बनाने का श्रेय उन उदात्त  जीवन मूल्यों को है , जिनके माध्यम से वह अपना सात्विक जीवन बिता रहा है | वस्तुतः किसी भी राष्ट्र का मूल्यांकन  वहाँ  के जन समाज के आचरणगत मूल्यों के आधार पर ही होता है | प्रत्येक राष्ट्र की एक परंपरागत संस्कृति होती है , जिसका सृजन उन मूल्यों के आधार पर होता है जिन्हें वहाँ के महापुरुषों ने अपने जीवन मे अपनाया | वस्तुतः उन मूल्यों के और उनके माध्यम से ही उनका चरित्र एवं व्यक्तित्व गौरवमय बनकर स्वर्णाक्षरो मे अंकित हुआ |
किसी भी देश की भौतिक प्रगति का भी महत्व है लेकिन भौतिक प्रगति को उस देश का शरीर कहा जा सकता है , जबकि उसमे प्राण तत्व का संचार करने वाले जीवन - मूल्य ही है | इससे किसी भी व्यक्ति , जाति , समाज , देश व राष्ट्र के जीवन- मूल्यों का महत्व स्पष्ट हो जाता है | 
किसी भी समाज की धारणाएँ, मान्यतायें, आदर्श और उच्चतर आकांक्षाएँ ही वहाँ  के जीवन मूल्यों  का सृजन करती है और यह देश , काल  एवं परिस्थिति सापेक्ष होती है | यद्यपि इन जीवन मूल्यों की आधार भूमि मे प्रायः परिवर्तन नहीं होता , परन्तु उनके व्यवहृत रूप मे परिस्थिति-जन्य  परिवर्तन होता रहता है |
भारतीय जीवन मे नारी के शील की  रक्षा का सदा से विशेष महत्व रहा है | मध्य युग मे सशक्त विदेशी आक्रमणकारियों की ज्यादतियों से जब यहाँ के अशक्त राजा और जन- समाज उनकी रक्षा न कर सके, तो  न केवल सामूहिक जौहर को प्रश्रय मिला अपितु संभवतः सती- प्रथा का प्रचलन भी तभी हुआ | भारतीय नारी ने विदेशी पाशविक - शक्ति का शिकार होने की अपेक्षा प्राणों की बलि दे देने को श्रेयस्कर समझा | उन  परिस्थितियों मे यही यहाँ का जीवन - मूल्य था , लेकिन बदलते परिवेश मे आज इसकी आवश्यकता नहीं , अतः वही सती प्रथा जो उस युग मे गौरव का कारण बनी थी , आज निंदनीय और अवांछनीय हो गयी | मूलाधार वही रहा नारी के शील की रक्षा | आज भी मदोन्मत मानव की राक्षसी वृत्तियों का शिकार होने से बचने के लिए प्राणों की आहुति देने वाली नारियों को यहाँ सम्मान कि दृष्टी से देखा जाता है - यह क्या कम है ? जीवन के उच्चतर  मूल्य  ही वह आदर्श बने रहते है , जिनके लिए मानव न केवल अनंत कष्ट सहकर जीवन व्यतीत करने के लिए तैयार हो जाता है , अपितु समय आने पर प्राण तक न्योछावर कर देता है लेकिन अपने मूल्य नहीं छोड़ता | पितृ भक्त राम सहर्ष राज्य त्यागकर १४ वर्षों के लिए वन को चले गए और " प्राण जाहि पर वाचन ना जाई" का पालन करते हुए दशरथ पुत्र वियोग मे स्वर्ग सिधार गए, पर अपने वचन  का पालन करने मे नहीं चूके | महाराणा प्रताप वन- वन मारे फिरते रहे, बच्चे को घांस की रोटी तक खिलाई लेकिन न स्वाभिमान का त्याग किया और न ही पराधीनता स्वीकार की | नौ वर्ष के गुरु गोविन्द सिंह ने धर्म की रक्षा के लिए पिता तेग बहादुर को ही श्रेष्ठ मानव बताते हुए धर्म की बलिदेवी पर चढने के लिए प्रेरित किया | इतना ही नहीं " स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः" (धर्म परिवर्तन करने से अपने धर्म मे मर जाना अच्छा है -गीता) इस जीवन मूल्य से अभिसिंचित होने के कारण उनके सात और नौ वर्ष के पुत्रो ने भी  अपने को दीवार मे  जिन्दा   ही चिनवा लेना अच्छा समझा लेकिन धर्म परिवर्तन से मनाही कर दी | स्वतः गुरु गोविन्द सिंह दूसरे दोनों पुत्रो के युद्ध मे शहीद हो जाने  के बाद भी जीवन भर अत्याचारी औरंगजेब और उसके सेनापतियों से जूझते रहे लेकिन धर्म , जाति और देश की पराजय स्वीकार नहीं की | भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव को कौन भुला सकता है , जिन्हीने देश की स्वतंत्रता के लिए हँसते - हँसते फांसी के तख्ते चूम लिए और उफ़ तक न की | ये है इन देशभक्तों के मूल्य - स्वाभिमान , स्वतंत्रता - प्रेम , धर्म- रक्षा और देश - प्रेम जिन्होंने इन मूल्यों के लिए बड़े से बड़ा त्याग किया और भारत ही क्या , विश्व के इतिहास मे अमर हो गए |

जीवन - मूल्यों का आधार

भारतीय जीवन - मूल्यों को जानने के लिए उनके आधार को समझना  आवश्यक है | मानव सभ्यता के विकास के साथ- साथ मनुष्य ने मात्र पशुवत जीवन व्यतीत करने की अपेक्षा कुछ और अच्छी तरह जीवन जीने की कला सीखनी चाही होगी | समूह मे जीवन व्यतीत  की प्रेरणा संभवतः आत्मरक्षा के सिद्धांत से मिली हो | यह आत्म-रक्षा ही समूह की रक्षा मे परिणत हो गयी | इसी से मानव को अमूल्य जीवन का महत्व समझ मे आया | मानव मे "जीवन की आस्था" उत्पन्न हो गयी और वह अपने समूह अ समाज के सभी मनुष्यों के जीवन के महत्व को अनुभव करने लगा | यही जीवन- मूल्यों कि प्रति उसके विश्वास का आरंभ था | वस्तुतः इन मूल्यों का आधार श्रुति , स्मृति , पुराणों मे अन्तर्निहित सत्य एवं महापुरुषों का अनुभूत सत्य एवं सदाचरण ही है, जिसे हम इस रूप मे प्रस्तुत कर रहे है | बौद्धिक प्राणी होने के कारण वह प्रत्येक कार्य के औचित्य -अनौचित्य पर विचार करने लगा - पहले वैयक्तिक दृष्टी से , पुनः सामाजिक दृष्टी से और अंततः मानवीय दृष्टी से | धीरे - धीरे उसने अपने अंतर्मन मे स्वीकार कर लिया कि इस औचित्य-अनौचित्य का आधार उसका बौद्धिक विवेक है , चाहे वह किसी भी क्षेत्र मे क्यों न हो  | वैयक्तिक क्षेत्र  मे व्यक्ति अपने- आप ही दोनों पक्षों की ओर से तर्क-वितर्क कर किसी निर्णय पर पहुचता है, जबकि सामाजिक क्षेत्र मे सभी व्यक्ति दो या अधिक पक्षधर बनकर अपना- अपना पक्ष स्पष्ट और सशक्त करने का प्रयास करते है | मानव ने इस विवेक शक्ति के महत्व को भी स्वीकार किया और जीवन मूल्यों के आधार- स्वरुप इसे अपनाया |
जब उसका एक ही मूल्य अन्यान्य देश, काल एवं परिस्थितियों मे उपयुक्त न प्रयुक्त हुआ , तो उसने इन पर भी विचार करना आवश्यक समझा और इस निर्णय पर पहुचा कि इन परिवर्तनो के साथ जीवन - मूल्यों मे भी परिवर्तन आवश्यक है , अतः समग्र  परिवेश को भी इसका आधार स्वीकार कर लेना चाहिये | यदि ये जीवन- मूल्य इस व्यापक जन समाज के जन कल्याण के लिए न हो , तो उन्हें भी नहीं स्वीकार किया जा सकता, अतः जीवन - मूल्यों का एक महत्वपूर्ण आधार बना लोक-कल्याण की चेतना |
यह सब तो ठीक है पर एकाकी मानव का क्या हो? क्या वह  अपने सभी मूल्यों का लोक कल्याण के लिए त्याग कर दे अथवा वहाँ भी विवेक एवं अन्य आधारो का आश्रय लेकर  अपने "आतंरिक - उन्नयन " पर विचार करे ?
स्पष्ट है कि जो मूल्य व्यक्ति का "आतंरिक - उन्नयन " नहीं करते , वे भी जीवन-मूल्य नहीं हो सकते |
संक्षेपतः हम कह सकते है कि भारतीय जीवन- मूल्यों के निम्न आधार हो सकते है -
  • जीवन के प्रति आस्था और लगाव
  • विवेकशील चिंतन 
  • परिवेश-बोध 
  • लोक कल्याण की  चेतना और 
  • वैयक्तिक उदात्तीकरण अथवा आतंरिक - उन्नयन
 इन आधारों को ध्यान मे रखते हुए मानव -मूल्यों की परिभाषा है - किसी देश, काल और परिस्थिति मे जन - सामान्य की उदात्त मान्यताएं  ही मानव-मूल्य होती है | और कसौटियां है -
  • जिसका ध्येय व्यापक लोक -कल्याण हो
  • जिससे  व्यक्ति का उदात्तीकरण हो 

मूल्यों का वर्गीकरण 

जीवन-मूल्यों का व्यापक ज्ञान प्राप्त करने के लिए उनका वर्गीकरण भी किया जा  सकता है |  जैसे:-
शारीरिक मूल्य मे स्वस्थ देह की बात कही जा  सकती है , जिसके अनिवार्य तत्व हो सकते है - नीरोग, सशक्त , सहनशील, सब अंगों का अनुपातिक विकास , आयु के अनुसार आनन् पर तेज , सौंदर्य  और स्फूर्ति |
इसी प्रकार वैयक्तिक मूल्यों में आत्मबल, आत्मविश्वास  , स्वाभिमान, आत्म-निर्भरता , निर्भीकता , संतोष, धैर्य , संकल्प, सहृदयता आदि को लिया जा सकता है |
आर्थिक मूल्यों में उचित साधनों से धन का उपार्जन , सत्य मार्ग से ही उसका व्यय, मितव्ययता , उपयुक्त दान तथा अनावश्यक संग्रह न करना आदि | हमारे यहाँ कहा भी गया है -"अर्थस्य तिस्र: गतयः दानं भोगो नाशश्च " ( धन की तीन गतियाँ होती है उपभोग कर लो , दान दे दो अथवा नष्ट हो जायेगा )|
नैतिक जीवन - मूल्यों में कर्तव्य पालन , ईमानदारी , त्याग , बलिदान, परोपकार , सेवा, सदाचार , शिष्ट व्यवहार , सत्यनिष्ठा , व्यवस्था के प्रति आदर आदि को लिया ज सकता है |
सामाजिक मूल्यों में सद्भावना , सहानुभूति  सहयोग, मानवीयता आदि को रखा जा सकता है |
राजनीतिक मूल्यों में राष्ट्रप्रेम , स्वतंत्रता, अनुशासन , विजयोल्लास आदि का महत्व है |
धार्मिक मूल्यों में अव्यक्त सत्ता में विश्वास , भगवद्भक्ति , कीर्तन, गुणगान , प्रार्थना आदि को लिया जा  सकता है |
बौद्धिक मूल्यों में महत्वपूर्ण है - कल्पना, जिज्ञासा , विवेचन, विश्लेषण , वैज्ञानिक चिंतन , मनन , रचना -धर्मिता और विवेक |
सौंदर्य सम्बंधी मूल्यों में संवेदनशीलता , कलाप्रेम , प्रकृति-प्रेम, मानव सौंदर्य प्रेम आदि को स्थान दिया जा सकता है |
आध्यात्मिक मुल्यों  में ध्यान-परायणता , शरीर - बोध से अतीत अवस्था को प्राप्त करना , ब्रह्मानुभूति के पथिक बनना व ब्रह्म तत्व की खोज आदि है |
इन्हें अन्यान्न  वर्गों में रखने का तात्पर्य यह नहीं  कि इनका परस्पर सम्बन्ध नहीं | वस्तुतः यह सभी मूल्य -वटवृक्ष रुपी जीवन-मूल्य की शाखा - प्रशाखाएँ ही हैं |

Tuesday, May 14, 2013

भारतीय दर्शन शास्त्र || एक परिचय

अध्यात्म का मूलाधार दर्शन है। भारत में धर्म और दर्शन परस्पर ऐसे रचे-बसे हैं कि उन्हें अलग नहीं किया जा सकता। दोनों की परंपरा समान गति से निरंतर प्रवाहमान द्रष्टव्य है। भारत चिरकाल से एक दर्शन प्रधान देश रहा हे। भौतिक जगत का मिथ्यात्व तथा निराकार ब्रह्म का सत्य एवं सर्वव्यापकता यहाँ सदैव विचार का विषय बने रहे हैं। भारतीय दार्शनिक विचारधारा को समय की दृष्टि से चार कालों में विभाजित कर सकते हैं:
वैदिक काल में वेद से उपनिषद तक रचा साहित्य समाहित है।
महाभारत काल- चार्वाक और गीता का युग।
बौद्ध काल- जैन तथा बौद्ध धर्म का युग।
उत्तर बौद्ध काल- न्याय, वैशेषिक, सांख्य, योग, पूर्व तथा उत्तर मीमांसा का युग।

वैदिक काल में आर्यों की चिंताधारा उल्लास तथा ऐश्वर्य भोगने की कामना से युक्त थी। ब्राह्मण ग्रंथों में वैदिक ऋचाओं और मन्त्रों के अर्थ के साथ-साथ तत्कालीन पुराण और इतिहास के संदर्भ भी मिलते हैं। उनके माध्यम से कर्म की महत्ता बढ़ने लगी। उनकी सबसे बड़ी विशेषता वेद और वेदोत्तर साहित्य की मध्यवर्ती कड़ी होने में है। धीरे-धीरे आर्यों की विचारधारा अंतर्मुखी होने लगी। अत: उपनिषदों की रचना हुई। औपनिषदिक साहित्य में अनेक कथाएं दार्शनिक तथ्यांकन करती है।
पिप्पलाद की कथा ब्रह्म जीव, जगत पर प्रकाश डालती है।
नचिकेता भौतिक सुखों की नि:सारता पर।
सुकेशा के माध्यम से सोलह कलाओं से युक्त पुरुष का अंकन है तो
वरुण और भृगु का वार्तालाप ब्रह्म के स्वरूप को स्पष्ट करता है।
छांदोग्योपनिषद में अंकित बृहस्पति की कथा इन्द्रियों की नश्वरता को उजागर करती हे। ऐसी अनेक कथाएं उपलब्ध हैं।


वैदिक काल

वैदिक ऋषियों ने एकांत अरण्यों (वनों) में रहकर जिन ग्रंथों की रचना की, वे आरण्यक कहलाये। इन ग्रंथों में तप को ज्ञान मार्ग का आधार मानकर तप पर ही बल दिया गया था। सूत्र ग्रंथों की रचना के साथ कर्मकांड की महत्ता बढ़ने लगी। भारतीय यज्ञ पद्धति का सम्यक विवेचन श्रौत सूत्रों में मिलता है, मानव जीवन के सोलह संस्कारों का विवेचन स्मृति सूत्रों में उपलब्ध है। स्मृतियों का परिगणन भी वैदिक साहित्य में ही होता है। इन ग्रंथों में वैदिक संस्कृति का स्वरूप अंकित किया गया है। यद्यपि मनुस्मृति तथा याज्ञवल्क्य स्मृति ही सर्वाधिक चर्चा का विषय बनीं किंतु स्मृतियों की संख्या पुराणों की भांति बहुत अधिक है। स्मृति ग्रंथ लोक जीवन के आचार-विचार, धर्मशास्त्र, आश्रम, वर्ण, राज्य और समाज आदि परक अनुशासन का अंकन प्रस्तुत करते हैं। कुल मिलाकर इस समस्त वैदिक साहित्य में निर्गुण परम सत्ता की विद्यमानता मान्य थी। उसी परम सत्ता की दैवीय शक्ति प्रकृति के विभिन्न तत्त्वों में समाहित मानी जाती थी। वरुण, सूर्य, अग्नि भौतिक तत्त्व प्रदान करने वाले देवताओं के रूप में पूज्य थे। इन्द्र उन देवताओं के नियंता थे। तब लोग मंदिरों की स्थापना नहीं करते थे क्योंकि प्रकृति के अंश-अंश में उसकी अभिव्यक्ति का अनुभव करते थे। उनके आचार-विचार में कर्म, ज्ञान, उपासना की स्वीकृति थी। तत्कालीन संस्कृति में यज्ञ की प्रधानता थी।


महाभारत काल


महाभारत युग तक वैचारिक विरोध बढ़ चुका था। उस संघर्षमय समाज में एक ओर ज्ञान पर बल दिया जा रहा था दूसरी ओर कर्म पर। ऐसी विषम कड़ियों में एक ओर चार्वाक ने ज्ञान और कर्म की निरर्थकता पर प्रकाश डालकर जीवन के भौतिक सुख को उजागर करने का कार्य किया, तो दूसरी ओर सांख्य दर्शन के अंकुर भी तत्कालीन संस्कृति में उभरते दिखलायी पड़े। भगवद्गीता ने सामाजिक विषमताओं को दूर कर समानता लाने का कार्य किया। गीता ने नैतिक दृष्टिकोण को सर्वसुलभ बनाया। इसके माध्यम से प्रबुद्ध मानव समाज से इतर जनसाधारण में चार्वाकजन्य प्रवृत्ति तथा उपनिषदजन्य निवृत्ति तथा उपनिषदजन्य निवृत्ति का समन्वित रूप अंकित हुआ। गीता के उपदेश ने फलाकांक्षाविहीन कर्म में लगे रहने की ओर प्रवृत्त किया। इसके अनुसार समस्त कर्म ईश्वर के प्रति अर्पित होने चाहिए। अत: उत्तर वैदिक काल में सर्वेश्वरवाद का प्रचार हुआ, आत्मा-परमात्मा के अंश-अंशी संबंध का विवेचन हुआ। यज्ञों की अनेक रूपता का प्रसार हुआ। गृह यज्ञ, पंचमहायज्ञ, सोलह संस्कार संबंधी यज्ञों की संपन्नता भिन्न-भिन्न मन्त्रों से होती थी; अत: यज्ञ विषयक ज्ञान पुरोहितों तक सीमित होता गया। उत्तरोत्तर कर्मवाद की महत्त् बढ़ती गयी। ज्ञान तथा उपासना की अपेक्षा कर्मकांड अधिक महत्त्वपूर्ण हो गया।
उन विषय घड़ियों में नास्तिक दर्शनों ने जन्म लिया। नास्तिक का अभिप्राय वेदों में विश्वास न होने से था। चार्वाक, जैन तथा बौद्ध दर्शनवादी कर्मकांड की अतिशयता को वैदिक परंपरा मानकर उससे दूर हट रहे थे। उन्होंने मानव-समाज को लेकर जीवन की व्यावहारिक पक्ष की ओर ले जाने का प्रयास किया। चार्वाक दर्शन में सुखपूर्वक जीवनयापन करने पर बल दिया गया था।:

यावज्जीवेत् सुखं जीवेत् ऋणं कृत्वा घृतंपिवेत्।

भस्मी भूतस्य देहस्य पुनरागमनं कुत:।।

जनता जनार्दन के लिए इस प्रकार के कथन इतने सुंदर थे कि यह दर्शन चार्वाक (चारु+वाक् =चार्वाक) कहलाया। यह भौतिकवादी, प्रत्यक्षवादी, निरीश्वरवादी, यदृच्छावादी, स्वभाववादी तथा सुखवादी दर्शन है। यह पांच तत्त्वों में से आकाश को स्वीकार नहीं करता, केवल प्रत्यक्ष पर विश्वास करता है। जीवन का लक्ष्य अधिकाधिक भौतिक सुख प्राप्त करना है।


बौद्ध काल

महाभारत युद्ध के उपरांत समाज कुछ ऐसी विचारधारा में फंस गया था कि मानवमात्र स्वयमेतर किसी पर विश्वास नहीं करना चाहता था। जैन तथा बौद्ध मत ने मानव समाज के आत्मविश्वास को पुष्ट कर उन्हें व्यावहारिक जीवन सुचारु रूप से जीने के लिए प्रेरित किया।


जैन दर्शन

जैन दर्शन में सत्य-अहिंसा पर विशेष बल दिया गया। यह निरीश्वरवादी दर्शन है। इसमें सृष्टि को अनादि तथा छह तत्त्वों से – जीव, पुद्गल (शरीर), धर्मद्रव्य, अधर्मद्रव्य, आकाश (अनत) तथा काल (मृत्यु) से बना हुआ माना है। साधना के सात सोपान हैं:
  • जीव (आत्मा),
  • अजीव (शरीर),
  • प्रास्राव,
  • बंध,
  • संवर,
  • निर्जरा तथा
  • सप्तम् सोपान कैवल्य (मोक्ष) है।


बौद्ध दर्शन

बौद्ध दर्शन के प्रतिष्ठापक महात्मा बुद्ध (सिद्धार्थ) थे। महात्मा बुद्ध ने राजसी वैभव की निस्सारता का अनुभव किया तथा बोधिसत्त्व प्राप्त करके उन्होंने निरीश्वरवाद की स्थापना की। बौद्ध दर्शन के अनुसार चार आर्यसत्य हैं:
  • सर्वंदु:खम्,
  • दु:ख समुदाय,
  • दु:ख निरोध,
  • दु:ख निरोधगामिनी प्रतिपद। न सांसारिक भोग में लिप्त रहना उचित है और न शरीर को व्यर्थ का कष्ट देना। आष्टांगिक मार्ग से इच्छाओं और तृष्णाओं पर विजय प्राप्त की जा सकती हैं यह दर्शन क्षणिकवादी है। इस दर्शन में आत्मा के स्थायित्व की भी अस्वीकृति है, वह निरंतर परिवर्तनशील मानी गयी है। बौद्ध दर्शन में मुख्य रूप से सत्कर्म पर बल दिया गया है, वही निर्वाण तक पहुंचा सकता है।
प्राचीन परंपराओं का पालन करने वाले, वेद में आस्था रखने वाले लोग चार्वाक, जैन और बौद्ध मत की नास्तिक गतिविधि से विशेष आहत हुए। उन्होंने आस्तिक दार्शनिक विचारधारा को तर्क की कसौटी पर कसकर जीवन के निकट लाने का प्रयास किया। इस प्रकार समाज का एक वर्ग नास्तिक दर्शनों में विश्वास कर रहा था तो दूसरा वर्ग आस्तिक दर्शनों में आस्था रखता था। इस वर्ग के दार्शनिक आत्मा-परमात्मा के गुह्य रहस्यों को विभिन्न आयामों से देखकर अपनी अलग-अलग दर्शन पद्धतियों का परिचय दे रहे थे। आस्तिक दर्शनों की संख्या छह थी, अत: वे षड्दर्शन नाम से अभिहित हैं:


न्याय दर्शन

न्याय दर्शन  के प्रणेता गौतम मुनि थे। यह मत तर्क तथा ज्ञान पर बल देता है। इसके अनुसार ब्रह्म सर्वशक्तिसंपन्न, सर्वज्ञ तथा सत्य है। आत्मा भी सत्य, अजर तथा अमर है। तर्क चार प्रमाणों (अनुमान, उपमान, प्रत्यक्ष तथा आप्त शब्द) पर आधारित रहता है। इस दर्शन ने तर्क-प्रणाली को विकसित किया।


वैशेषिक दर्शन

वैशेषिक दर्शन के उद्भावक कणाद मुनि थे। उन्होंने दृश्य जगत की व्याख्या, उसे विभिन्न श्रेणियों में विभक्त करके की है, अत: इस दर्शन के अनुसार विश्व का सत्य-द्रव्य, गुण, कर्म, सामान्य, विशेष तथा समवाय है। वैशेषिक ने परमाणुवाद पर फिर से दृष्टि डाली।


सांख्य दर्शन

सांख्य दर्शन के प्रणेता कपिल मुनि थे। उन्होंने जड़ जंगम जगत की प्रहेलिका सुलझाते हुए पुरुष के साथ चौबीस प्राकृतिक तत्त्वों का आख्यान किया। इसी से यह सांख्य दर्शन नाम से अभिहित हुआ। कपिल मुनि के अनुसार जब तक प्रकृति की सत्त्व रज तम में साम्यावस्था है, उत्पत्ति नहीं होती। विषमावस्था में उत्पत्ति होती है, पुन: साम्य होने पर प्रलय में सब कुछ समाहित हो जाता है। पुरुष अजन्मा, सर्वशक्तिसंपन्न, अमर और अलिप्त है। वह केवल प्रकृति की साम्यावस्था को भंग करता है। चौबीस तत्त्वों की गणना इस प्रकार की है:
प्रकृति (सत्, रज, तम् से युक्त) 1+बुद्धि 1+अहंकार 1। (सत्, रज, तम के उद्वेलन से कुछ आंतरिक परिणाम उत्पन्न होते हैं तथा कुछ बाह्य): आंतरिक परिणाम = मन (1) + ज्ञानेंद्रियां (5)+ कर्मेंन्द्रियां (5)बाह्य परिणाम= तन्मात्रा (5)+ पंचभूत (5) फलत: सृष्टि का उद्भव होता है। कपिल मुनि ने सांख्य दर्शन में मात्र सिद्धांतों का विवेचन किया है।


योग दर्शन

योग दर्शन के उद्भावक पतंजलि ने सांख्य दर्शन के सिद्धांतों को कर्म से जोड़कर प्रस्तुत किया। उन्होंने चित्तवृत्ति निरोध पर बल दिया। उसको दो श्रेणियों में बांटा-
  • शरीरपरक (हठयोग),
  • मनपरक (राजयोग)।
हठयोग के अंतर्गत अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह, नियम, आसन, प्राणायाम प्रत्याहार का विवेचन है तथा राजयोग के अंतर्गत धारणा, ध्यान, समाधि का अंकन है। इन्द्रियों के लोभ संवरण तथा चित्तवृत्ति निरोध के फलस्वरूप तुरीयावस्था (समाधि की अवस्था) तदुपरांत जीवनमुक्ति (जब तक शरीर नहीं त्यागा) और अंततोगत्वा देहमुक्ति (शरीर त्याग कर) की उपलब्धि होती है।


पूर्व मीमांसा या कर्मकांड

पूर्व मीमांसा की स्थापना करते हुए जैमिनी ने निरीश्वरवाद, बहुदेववाद तथा कर्मकांड का योग प्रस्तुत किया। उन्होंने नित्यनैमित्तिक कर्मों के साथ-साथ निषद्ध कर्मों पर भी विचार किया। उन्होंने आत्मा को अजर-अमर तथा वेदों को अपौरुषेय माना। ब्राह्य जगत का आख्यान तीन घटकों के रूप में किया-
  1. शरीर
  2. इन्द्रियां तथा
  3. विषय। उनके अनुसार अभीष्ट तत्त्व मोक्ष है। मोक्ष का अभिप्राय आत्मज्ञान से है।


उत्तर मीमांसा या वेदांत दर्शन

वेदांत दर्शन को उत्तरमीमांसा भी कहा जाता है। इसके प्रतिष्ठापक बादरायण व्यास थे। उन्होंने वेदत्रयी (ऋक्, यज् तथा साम) को विशेष महत्त्व दिया। उस युग तक अथर्ववेद की रचना नहीं हुई थी। इस दर्शन का मुख्याधार प्रस्थान त्रयी है अर्थात उपनिषद, ब्रह्मसूत्र तथा भगवद्गीता नामक ग्रंथों को मुख्य रूप से ग्रहण किया गया है। इसके अनुसार ब्रह्म जगत की उत्पत्ति का कारण है। वह केवल अनुभूति का विषय है। आत्मा स्वत:सिद्ध है तथा मोक्ष ब्रह्म में लीन होने का अथवा मुक्ति का पर्याय है। वेदांत में उपनिषदों के तत्त्व ज्ञान को विशेष रूप से ग्रहण किया गया है। वेदांत दर्शन का नाम ही वैदिक युग के अंतिम चरण का द्योतक है। उस युग में यह दर्शन सर्वाधिक प्रचलित हुआ क्योंकि बादरायण व्यास ने दार्शनिक व्याख्या के साथ-साथ समाजपरक अनेक तथ्यों को सामने रखा था; जैसे स्त्री-पुरुष समानता, शूद्रों के विषय में उदारता आदि। इसका सबसे बड़ा योगदान समस्त विश्व में एकता का भाव जगाने का प्रयास है। उपनिषदों में द्वैत तथा अद्वैत दर्शन का सुंदर विवेचन उपलब्ध है। बादरायण व्यास ने अब उसके साथ भगवद्गीता तथा ब्रह्मसूत्र के तथ्यों को समाविष्ट करके अत्यंत निखरा हुआ दार्शनिक रूप प्रस्तुत किया। उन्होंने पुन: 'तत्त्वमसि', 'अहं ब्रह्मास्मि' की स्थापना की। इस दर्शन में एक धूमिल तत्त्व दर्शनीय है, वह यह कि बादरायण ने ब्रह्म को परिणाम और नित्य दृष्टि दोनों ही रूपों में अंकित किया है जो कि परस्पर विरोधी विचारधाराएं हैं। विरोधी तत्त्वजन्य उलझन को दूर करते हुए शंकराचार्य ने परिणामवाद को विवर्तवाद में परिणत किया। शंकराचार्य ने अद्वैतवाद की प्रतिष्ठा की, जो मायावाद भी कहलाया। उन्होंने पारमार्थिक सत्ता को 'एक' न कहकर 'अद्वैत' कहा जिसका अंकन 'नेति, नेति' के माध्यम से ही संभव है। जगत की संपूर्ण सत्ता को नकार कर ही ब्रह्म की सत्ता का अनुमान लगाया जा सकता है। शंकराचार्य ने ब्रह्म को 'एकता', 'अनेकता' से अलग 'उपाधिशून्य चेतन तत्त्व' माना है। माया भी अनिर्वचनीय है-वह न सत है, न असत। सत असत से विलक्षण है। उसका परिणामी उपादान कारण जगत है। जैसे रज्जु में सांप की अथवा सीपी में रजत की प्रतीत होती है- उसका परिणामी उपादान कारण अज्ञान है- वही माया है- जो सत असत विलक्षण है। अद्वैत ब्रह्म की अवस्थाएं हैं- पारमार्थक अवस्था में वह अद्वैत ब्रह्म है, सत्य है। व्यावहारिक अवस्था में वह जीव, तथा प्रतिभासित अवस्था में स्वप्न कहलाता है। अत: जगत एवं संसार का विवर्तोपादन कारण ब्रह्म है। माया की उपाधि से ब्रह्म ही ईश्वर बन जाता है। जैसे पृथ्वी से अनेक वस्तुओं का जन्म होता है, वैसे ही ईश्वर से जीव और विभिन्नताएं आभावित होती हैं।  इस अनेकता से ब्रह्म पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता वह मायावी मायाजन्य तत्त्वों से अप्रभावित रहता है। अविद्या की निवृत्ति से मोक्ष का साक्षात्कार होता है। शंकराचार्य के अद्वैतवाद ने समस्त भारत को प्रभावित किया। आज भी भारतीय समाज के कुछ वर्ग इससे प्रभावित है। शैव मत का आधार भी अद्वैतवाद ही था। लगभग तीन शताब्दी बाद इसके प्रतिरोध में स्वर उठा। अद्वैतवाद का विरोध सहज कार्य नहीं था, किंतु भक्ति के प्रचार के निमत्त विभिन्न ग्रंथों की रचना हुई। उत्तरोत्तर दक्षिण प्रदेशीय आलवार अथवा आडवार भक्तों का महत्त्व बढ़ा- वैष्णव भक्ति का उद्भव हुआ। समसामयिक विद्वानों ने विभिन्न दर्शनों की स्थापना की। उनकी वैचारिकता का मूलाधार श्रीमद्भागवत था। सर्वशक्तिमान, सर्वव्यापक ब्रह्म को स्वीकार करते हुए भी उन्होंने विभिन्न कोणों से जगत, ब्रह्म और जीव की व्याख्या की। अत: शंकराचार्य की अद्वैतवादी विचारधारा के विरोध में मुख्य रूप से चार दार्शनिक संप्रदायों की स्थापना हुई:
  • विशिष्टाद्वैत,
  • द्वैत,
  • शुद्धाद्वैतवाद तथा
  • द्वैताद्वैत


विशिष्टाद्वैत दर्शन

विशिष्टाद्वैत दर्शन के प्रतिष्ठापक रामानुजाचार्य थे। उनका जन्म सं0 1084 के आस-पास हुआ था। उनकी विचारधारा शंकराचार्य के अद्वैतवादी निर्गुण ब्रह्म के विरुद्ध थी। उन्होंने सगुण ब्रह्म के साथ-साथ जगत और जीव की सत्ता की प्रतिष्ठा की। उन्होंने शरीर को विशेषण तथा आत्मतत्त्व को विशेष्य माना। शरीर विशिष्ट है, जीवात्मा अंश तथा अंतर्यामी परमात्मा अंशी है। संसार प्रारंभ होने से पूर्व सूक्ष्म चिद् चिद् विशिष्ट ब्रह्म की स्थिति होती है संसार एवं जगत की उत्पत्ति के उपरांत स्थूल चिद् चिद् विशिष्ट ब्रह्म की स्थिति रहती है। तयो एकं इति ब्रह्म अपनी सीमाओं की परिधि से छूट जाना ही मोक्ष है। मुक्तात्माएं ईश्वर की भांति हो जाती हैं- किंतु ईश्वर नहीं होतीं।

रामनुजाचार्य के दर्शन में सत्ता या परमसत् के सम्बन्ध में तीन स्तर माने गए हैं:- ब्रह्म अर्थात ईश्वर, चित् अर्थात आत्म, तथा अचित अर्थात प्रकृति।

वस्तुतः ये चित् अर्थात् आत्म तत्त्व तथा अचित् अर्थात् प्रकृति तत्त्व ब्रह्म या ईश्वर से पृथक नहीं है बल्कि ये विशिष्ट रूप से ब्रह्म का ही स्वरूप है एवं ब्रह्म या ईश्वर पर ही आधारित हैं यही रामनुजाचार्य का विशिष्टाद्वैत का सिद्धान्त है।

जैसे शरीर एवं आत्मा पृथक नहीं हैं तथा आत्म के उद्देश्य की पूर्ति के लिए शरीर कार्य करता है उसी प्रकार ब्रह्म या ईश्वर से पृथक चित् एवं अचित् तत्त्व का कोई अस्तित्व नहीं हैं वे ब्रह्म या ईश्वर का शरीर हैं तथा ब्रह्म या ईश्वर उनकी आत्मा सदृश्य हैं।

रामानुज के अनुसार भक्ति का अर्थ पूजा-पाठ या किर्तन-भजन नहीं बल्कि ध्यान करना या ईश्वर की प्रार्थना करना है। सामाजिक परिप्रेक्ष्य से रामानुजाचार्य ने भक्ति को जाति एवं वर्ग से पृथक तथा सभी के लिए संभव माना है।

वैष्णव आचार्यों में प्रमुख रामानुजाचार्य की शिष्य परम्परा में ही स्वामी रामानंदचार्य हुए थे, उन्होंने विशिष्टाद्वैत दर्शन को और प्रखरता और प्रबलता प्रदान की |

स्वामी रामानंद़ को मध्यकालीन भक्ति आंदोलन का महान संत माना जाता है.उन्होंने रामभक्ति की धारा को समाज के निचले तबके तक पहुंचाया.वे पहले ऐसे आचार्य हुए जिन्होंने उत्तर भारत में भक्ति का प्रचार किया.उनके बारे में प्रचलित कहावत है कि -द्वविड़ भक्ति उपजौ-लायो रामानंद.यानि उत्तर भारत में भक्ति का प्रचार करने का श्रेय स्वामी रामानंद को जाता है.उन्होंने तत्कालीन समाज में ब्याप्त कुरीतियों जैसे छूयाछूत,ऊंच-नीच और जात-पात का विरोध किया |

भारतीय धर्म, दर्शन, साहित्य और संस्कृति के विकास में भागवत धर्म तथा वैष्णव भक्ति से संबद्ध वैचारिक क्रांति की महत्वपूर्ण भूमिका रही है. वैष्णव भक्ति के महान संतों की उसी श्रेष्ठ परंपरा में आज से लगभग सात सौ नौ वर्ष पूर्व स्वामी रामानंद का प्रादुर्भाव हुआ. उन्होंने श्री सीताजी द्वारा पृथ्वी पर प्रवर्तित विशिष्टाद्वैत(राममय जगत की भावधारा) सिद्धांत तथा रामभक्ति की धारा को मध्यकाल में अनुपम तीव्रता प्रदान की |

स्वामी रामानंद ने राम भक्ति का द्वार सबके लिए सुलभ कर दिया. उन्होंने अनंतानंद, भावानंद, पीपा, सेन, धन्ना, नाभा दास, नरहर्यानंद, सुखानंद, कबीर, रैदास, सुरसरी, पदमावती जैसे बारह लोगों को अपना प्रमुख शिष्य बनाया,जिन्हे द्वादश महाभागवत के नाम से जाना जाता है. इनमें कबीर दास और रैदास आगे चलकर काफी ख्याति अर्जित किये. कबीर औऱ रविदास ने निर्गुण राम की उपासना की.इस तरह कहें तो स्वामी रामानंद ऐसे महान संत थे जिसकी छाया तले सगुण और निर्गुण दोनों तरह के संत-उपासक विश्राम पाते थे.जब समाज में चारो ओर आपसी कटूता और वैमनस्य का भाव भरा ङुआ था, उन्होंने सर्वे प्रपत्तेधिकारिणों मताः का शंखनाद किया और भक्ति का मार्ग सबके लिए खोल दिया. उन्होंने महिलाओं को भी भक्ति के वितान में समान स्थान दिया. उनके द्वारा स्थापित रामानंद सम्प्रदाय या रामावत संप्रदाय आज वैष्णवों का सबसे बड़ा धार्मिक जमात है. काशी का श्रीमठ हीं सगुण और निर्गुण रामभक्ति परम्परा और रामानंद सम्प्रदाय का मूल आचार्यपीठ है.

स्वामी रामानंद ने भक्ति मार्ग का प्रचार करने के लिए देश भर की यात्राएं की.वे पुरी औऱ दक्षिण भारत के कई धर्मस्थानों पर गये और रामभक्ति का प्रचार किया.पहले उन्होंने अपनी उपासना पद्धति में ऱाम और सीता को वरीयता दी. उन्हें हीं अपना उपास्य बनाया.राम भक्ति की पावन धारा को हिमालय की पावन ऊंचाईयों से उतारकर स्वामी रामानंद ने गरीबों और वंचितों की झोपड़ी तक पहुंचाया. वे भक्ति मार्ग के ऐसे सोपान थे जिन्होंने वैष्णव भक्ति साधना को नया आयाम दिया.उनकी पवित्र चरण पादुकायें आज भी श्रीमठ ,काशी में सुरक्षित हैं, जो करोड़ों रामानंदियों की आस्था का केन्द्र है.


द्वैतवाद

द्वैतवाद के प्रणेता मध्वाचार्य थे। 'एक' से अधिक की स्वीकृति होने के कारण यह 'द्वैत' तथा 'त्रैत' दोनों ही नामों से अभिहित है। इस दर्शन के अनुसार प्रकृति, जीव तथा परमात्मा तीनों का अस्तित्व मान्य है। मध्वाचार्य ने 'भाव' और 'अभाव' का अंकन करते हुए भ्रम का मूल कारण अभाव को माना। इस मत में विभिन्न दर्शनों में से अनेक तत्त्व गृहीत हैं। द्वैत में भेद की धारणा का बड़ा महत्त्व है। भेद ही पदार्थ की विशेषता कहलाता है। अत: उसे सविशेषाभेद कहा गया। मुक्ति चार प्रकार की होती है: सालोक्य, सामीप्य, सारूप्य तथा सायुज्य।


शुद्धाद्वैतवाद


शुद्धाद्वैतवाद के प्रतिष्ठापक वल्लभाचार्य थे। उनके अनुसार ब्रह्म सत्य है। माया ब्रह्म की इच्छा का परिणाम मात्र है। इच्छा आंतरिक तत्त्व है अत: उसे ब्रह्म से अलग नहीं कर सकते। साथ ही उसके अस्तित्व को नकार भी नहीं सकते। माया का अस्तित्व है- अत: अद्वैतवाद अमान्य है।


द्वैताद्वैतवाद


इस संप्रदाय को 'हंस संप्रदाय', 'देवर्षि संप्रदाय', अथवा 'सनकादि संप्रदाय' भी कहा जाता है। मान्यता है कि सनकादि ऋषियों ने भगवान के हंसावतार से ब्रह्म ज्ञान की निगूढ़ शिक्षा ग्रहण करके उसका प्रथमोपदेश अपने शिष्य देवर्षि नारद को दिया था। इसके ऐतिहासिक प्रतिनिधि हुए निम्बार्काचार्य इससे यह निम्बार्क संप्रदाय कहलाता है।

द्वैताद्वैतवाद की स्थापना करते हुए निम्बार्काचार्य ने कहा कि जिस प्रकार पेड़ भी सत्य है तथा शाखाएं भी सत्य हैं, उनका अलग अस्तित्वांकन दृष्टिभेद के कारण से होता है- ठीक उसी प्रकार की स्थिति जगत, जीव और ब्रह्म की है। ब्रह्म निजानंद का अविराम भोक्ता होने के कारण अक्षर ब्रह कहलाता है। अपने अंश (जीव) और जगत के रूपों का द्रष्टा होने के कारण ईश्वर कहलाता है। कारण ब्रह्म का मुख्य कर्तृरूप जीव है अत: वह जीव ब्रह्म कहलाता है। चिद् अंश के तिरोभाव के कारण जीव जगत को जड़ देखता है, इसलिए जगत ब्रह्म नाम से भी अभिहित है। मुक्ति का अभिप्राय ब्रह्मा में लीन होना नहीं है। जीव ब्रह्म से अलग रहते हुए भी दृश्यमान जगत के ब्रह्म तत्त्व को देखने में समर्थ हो जाता है- स्वांतरिक आनंद का भोग करता है।


भारतीय दार्शनिक


भारतीय दार्शनिक परंपरा ने चिंतनशील मानव समाज को आत्मचिंतन के प्रति जागरूक रहकर आत्मिक विकास के लिए प्रेरित किया। समय-समय पर चिंताधारा के कोण भले ही बदलते हुए दिखायी पड़ते हैं किंतु यह दार्शनिक विचारधारा आस्तिकता, नैतिकता तथा अध्यात्म की आधारशिला के रूप में द्रष्टव्य है। भारतीय मिथक साहित्य में दर्शन के विविध रूपों को आख्यानों के माध्यम से आरक्षित रखा गया। कहीं-कहीं तो मिथक के माध्यम से ही दार्शनिक विचारों का क्लिष्ट रूप सर्वसुलभ हो पाया है। नचिकेता के माध्यम से संसार की निस्सारता- मुंडकोपनिषद में पक्षी युगल के माध्यम से जीव और आत्मा, देवासुर संग्राम के माध्यम से हृदयजन्य सुवृत्तियों एवं कुवृत्तियों का संघर्ष सहज रूप में अंकित है। राजा अलर्क की कथा जीवन के प्रति अनासक्ति पर प्रकाश डालती है। समुद्रपर्यंत पृथ्वी के स्वामित्व की निस्सारता को पहचानकर उन्होंने ध्यान योग से मोक्ष प्राप्त किया था। दार्शनिक परंपरा ने भारतीय समाज की चिंताधारा पर आध्यात्मिक अंकुश लगाये रखने का कार्य किया है।

Wednesday, May 1, 2013

धर्मशास्त्र की महत्ता - (भारतीय संस्कृति)

कुछ जानने योग्य बातें -


 दो प्रकार का धर्म
१. इष्ट अर्थात यज्ञ याग २. पूर्त अर्थात मंदिर जलाशय का निर्माण, वृक्षारोपण , जीर्णोद्धार ! इन दोनों का निर्देश इष्टपूर्त शब्द से होता है
मुक्ति के दो साधन
तत्वज्ञान एवं तीर्थक्षेत्र मे देहत्याग
दो पक्ष
कृष्ण पक्ष एवं शुक्ल पक्ष
तिथियों के दो प्रकार
१. शुद्धा- सूर्योदय से सूर्यास्त तक रहने वाली २. विद्धा (यासखंडा) इसके दो प्रकार माने जाते है, (अ). सूर्योदय से ६ घटिकाओ तक चलकर दूसरी तिथि मे मिलने वाली (आ). सूर्यास्त से ६ घटिका पूर्व दूसरी तिथि मे मिलने वाली !
अशौच के दो प्रकार
जननाशौच और मरणाशौच
दो प्रकार के विवाह
अनुलोम , प्रतिलोम
पूजा के तीन प्रकार
वैदिकी, तांत्रिकी एवं मिश्रा (तान्त्रिकी पूजा शूद्रो के लिए उचित मानी गयी है)!
जप के तीन प्रकार
वाचिक, उपांशु , मानस !
तीन तर्पण योग
देवता (कुल संख्या ३१ ), पितर और ऋषि(कुल संख्या ३०)
गृहमख के तीन प्रकार
अयुत होम, लक्ष्य होम, कोटि होम!
यात्रा के योग्य त्रिस्थली
प्रयाग, काशी, गया
त्रिविध कर्म
संचित, प्रारब्ध , क्रियमाण
तीन ऋण
देव ऋण, पित्र ऋण एवं ऋषि ऋण
तीन प्रकार का धन
शुक्ल, शबल , कृष्ण
कालगणना के तीन सिद्धांत
सूर्यसिद्धान्त, आर्यसिद्धान्त, ब्राह्मसिद्धांत
मृत पूर्वजो के निमित्त तीन कृत्य
पिण्ड पितृयज्ञ, महापितृयज्ञ , अष्टकाश्राद्ध
कलिवर्ज्य तीन कर्म
नियोग विधि, ज्योतिष्टोम मे अनुबंधा गो की आहुति , ज्येष्ठ पुत्र को पैतृक संपत्ति का अधिकांश प्रदान !
रात्री मे वर्जित तीन कृत्य
स्नान , दान, श्राद्ध (किन्तु ये तीन कृत्य ग्रहण काल मे आवश्यक है )
विवाह के लिए वर्जित तीन मास
आषाढ़,माघ , फाल्गुन (कुछ ऋषियों के मत से विवाह सभी कालो मे सम्पादित हो सकता है)!
वर्ष कि तीन शुभ तिथियाँ
चैत्र शुक्ल प्रतिपदा (वर्ष प्रतिपदा ) , कार्तिक शुक्ल प्रतिपदा , विजयादशमी
ब्राह्मण  के तीन विभाग
ब्राह्मण , द्विज , विप्र (ब्राह्मण कुल मे जन्म लेने पर 'ब्राह्मण' कहलाता है , उपनयन संस्कार होने के बाद 'द्विज' कहलाता है और वेदाध्ययन पूर्ण होने पर 'विप्र' कहलाता है )
चार युग
सतयुग , त्रेता युग , द्वापरयुग एवं कलयुग
चार धाम
द्वारिका , बद्रीनाथ, जगन्नाथ पूरी एवं रामेश्वरम धाम
चारपीठ
शारदा पीठ ( द्वारिका ), ज्योतिष पीठ ( जोशीमठ बद्रिधाम), गोवर्धन पीठ ( जगन्नाथपुरी ) एवं श्रन्गेरीपीठ
चार वेद
ऋग्वेद , अथर्वेद, यजुर्वेद एवं सामवेद
चार आश्रम
ब्रह्मचर्य , गृहस्थ , बानप्रस्थ एवं संन्यास
चार पुरुषार्थ
धर्म, अर्थ, काम , मोक्ष
चार वर्ण
ब्राह्मण, क्षत्रिय , वैश्य , शूद्र
गृहस्थाश्रमी के प्रकार
शालीन, वार्ताजीवी, यायावर, चक्रधर और छोराचारिक
चार मेध
अश्वमेध, सर्वमेध, पुरूषमेध, पितृमेध ! चार मेध यज्ञ करने वाला विद्वान पंक्तिपावनमाना जाता है !
यज्ञों के चार पुरोहित
अध्वर्यु, आग्नीध्र, होता, एवं ब्रह्मा
चार वेदव्रत
महानाम्नी व्रत , उपनिषद व्रत, और गोदान इनकी गणना सोलह संस्कारो मे की जाती है
चार कायिक व्रत
एकभुक्त, नक्तभोजन, उपवास, अयाचित भोजन
चार वाचिक व्रत
वेदाध्ययन , नामस्मरण , सत्यभाषण , अपैशुन्य (पीछे निंदा न करना)
पापमुक्ति के चार उपाय
व्रत , उपवास, नियम, शरीरोत्ताप
वानप्रस्थो के चार प्रकार
वैखानस, उदम्बर, वाल्खिल्य, वनवासी ! आहार कि दृष्टी से दो प्रकार (१) पचनामक [पक्वभोजी] (२) अपचानात्मक (अपना भोजन न पकाने वाले)
वानप्रस्थाश्रमी के लिए आवश्यक श्रौत यज्ञ
आग्रायण इष्टि, चातुर्मास्य , तुरायण , दाक्षायण
सन्यासियों के चार प्रकार
कुटीचक, बहूदक, हंस , परमहंस (परमहंस के दो प्रकार विद्वतपरमहंस , विविदिशु)
चार प्रकार की प्रलय
नित्य, नैमित्तिक, प्राकृतिक, आत्यंतिक
सभी कर्मो के लिए शुभ वार
सोम, बुध, गुरु , शुक्र
धार्मिक कृत्य के लिए विचारणीय चार तत्व
तिथि, नक्षत्र , करण , मुहूर्त
तिथि वर्ज्य चार कर्म
षष्ठी को तैल, अष्टमी को मांस , चतुर्दशी को क्षौर कर्म, पूर्णिमा-अमावस्या को मैथुन
चार अंतःकरण
मन , बुद्धि , चित्त , एवं अहंकार
वेद मंत्रो के पांच विभाग
विधि, अर्थवाद, मंत्र, नामधेय, प्रतिषेध
यज्ञ की पांच अग्नियाँ
१. आहवनीय , २. गार्हपत्य , ३. दक्षिणाग्नि, (इन्हें त्रेता तीन पवित्र अग्नियाँ कहते है) ४. औपासन, ५. सभ्य (पंचाग्नि आराधना करने वाले गृहस्थाश्रमी ब्राह्मण को पंक्तिपावीउपाधि दी जाति है )
पांच मानस व्रत
अहिंसा , सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य , अकल्कता (अकुतिलता)
दुर्गा पूजा मे प्रयुक्त पांच चक्र
राजचक्र, महाचक्र देव्चाक्र, वीरचक्र  , पशुचक्र  (इसके अतिरिक्त तांत्रिक साधना मे प्रयुक्त चक्र है : अकडम चक्र , ऋणधन  चक्र, शोधन चक्र , राशिचक्र, नक्षत्र चक्र इन सबमे श्री चक्र प्रमुख एवं प्रसिद्ध है )
सन्यासी के भिक्षान्न के पांच  प्रकार
मधुकर, प्रकाणीत , आयाचित, तात्कालिक , उपपन्न
पञ्चामृत
दुग्ध , दधि, मधु, घृत , शर्करा
पांच महायज्ञ
देव, पितृ, मनुष्य, भूत, ब्रह्म
पञ्च गव्य
गाय का घी, दूध , दही , गोमूत्र एवं गोबर (इसके मिश्रण को ब्रह्मकूर्च कहते है )
पांच महापातक
ब्रह्महत्या , सुरापान , चोरी , गुरुपत्नी से सहवास, महापातकी से दीर्घकाल तक संसर्ग
पापफल के पांच भागीदार
कर्ता, प्रयोजक, अनुमन्ता , अनुग्राहक , निमित्त
पञ्चायतन देव
गणेश, विष्णु , शिव , देवी और सूर्य
पंच तत्व
प्रथ्वी , जल , अग्नि , वायु एवं आकाश
पञ्चांग के पांच अंग
तिथि , वार, नक्षत्र, योग , कारण
तिथियों के पांच अंग
नंदा(१,,११), भद्र (२,,१२), विजया (३,,१३ ), रिक्ता (४, , १४ ), पूर्णा (५, १० ,१५ )
दिन के पांच विभाग
प्रातः संगव, मध्यान्ह , सायाह्न !सम्पूर्ण दिन १५ मुहूर्तो मे बांटा गया है , दिन का प्रत्येक भाग तीन मुहुर्तों  का होता है ! श्राद्ध के लिए ८ वे से १२ वें तक के मुहूर्त योग्य काल है !
छः प्रकार का  धर्म
वर्णधर्म , आश्रमधर्म, गुणधर्म , निमित्तधर्म, साधारण धर्म
दिन के छः कर्म
स्नान , संध्या, जपहोम, देवतापुजन , अतिथिसत्कार
ब्राह्मण के षट कर्म
यजन , याजन, अध्यनन अध्यापन, दान एवं प्रतिग्रह
यतियो के छः कर्म
भिक्षाटन , जप, ध्यान , स्नान , शौच , देवार्चन
जल स्नान के छः प्रकार
नित्य, नैमित्तिक , काम्य , क्रियांग, मलापकर्षण, क्रियास्नान
गौण स्नान
मंत्र , भौम , आग्नेय , वायव्य , दिव्य, मानस ( ये स्नान रोगियों के लिए बताये गए है )
संवत प्रवर्तक छः महापुरुष
युधिष्ठिर , विक्रम , शालिवाहन , विजयाभिनंदन , नागार्जुन, कल्कि
पुनर्भू: (अर्थात पुनर्विवाहित "विधवा") के छः प्रकार
१. विवाह के लिए प्रतिश्रुत कन्या २. मन से दी  हुई ३.जिसकी कलाई मे वर के द्वारा कंगन बाँध दिया है ४.जिसको पिता के द्वारा जल के साथ दान किया हो ५. जिसने वर के साथ अग्निप्रदक्षिणा कि हो ६. जिसे विवाहोपरांत बच्चा हो चुका हो !. इनमे प्रथम पांच प्रकारों मे वर कि मृत्यु अथवा वैवाहिक कृत्य का अभाव  होने के कारण इन कन्याओ को पुनर्भू अर्थात पुनर्विवाह के योग्य माना गया है 
छह दर्शन
वैशेषिक , न्याय , सांख्य, योग , पूर्व मिसांसा एवं उत्तर मीसांसा
सात सोमयज्ञ
अग्रिष्टोम, उक्थ्य , षोडाक्ष , वाजपेय , अतिरात्र , आप्तोर्याम
सात पाकयज्ञ
अष्टका ,पार्वण-स्थालीपाक, श्राद्ध , श्रावणी , आग्रहायणी, चैत्री , आश्वयुजी
सात हविर्यज्ञ
अग्न्याधान , अग्निहोत्र , दर्शपूर्णमास , अग्रायण , चातुर्मास्यनिरुढपशुबंध, सौत्रमणी
सप्त ऋषि
विश्वामित्र , जमदग्नि , भरद्वाज , गौतम , अत्री , वशिष्ठ और कश्यप
श्राद्ध मे आवश्यक  सात विषयों की शुचिता
कर्ता , द्रव्य , पत्नी , स्थल, मन, मंत्र, ब्राह्मण
अस्पृश्यता न मानने के स्थान
मंदिर, देवयात्रा, विवाह, यज्ञ और अभी प्रकार के उत्सव , संग्राम, बाजार
सात प्रकार के पापियों से संपर्क
यौन , स्रौव, मुख, एकपात्र मे भोजन , एकासन , सहाध्ययन, अध्यापन
न्यास के सात प्रकार
हंसन्यास, प्रणवन्यास , मातृकान्यास , मंत्रन्यास, करन्यास , अंतर्न्यास, पीठन्यास
२७ या २८ नक्षत्रो के सात विभाग
१. ध्रुव नक्षत्र - उत्तराफाल्गुनी , उत्तराषाढा , उत्तराभाद्रपदा, रोहिणी | २. मृदु नक्षत्र - अनुराधा, रेवती, चित्र, मृगशिरा | ३. क्षिप्र नक्षत्र - हस्त , अश्विनी , पुष्य , अभिजित | ४. उग्र नक्षत्र - पूर्वाषाढा , पूर्वाभाद्रपदा, भरणी, मघा | ५. चर नक्षत्र - पुनर्वसु , धनिष्ठा , स्वाति , श्रवण , शतभिषा |६. क्रूर नक्षत्र - मूल, ज्येष्ठा , आर्द्रा , आश्लेषा |७. साधारण नक्षत्र- कृतिका , विशाखा
सप्त मोक्षपुरी
अयोध्या, मथुरा, माया (हरिद्वार), काशी, कांची,अवंतिका (उज्जयिनी) और द्वारका
सात मोक्ष दायिनि नदियाँ
गंगा, यमुना, सिंधु, कावेरी, नर्मदा, ब्रह्मपुत्र, सरस्वती
प्रमुख आठ यज्ञकृत्य
ऋत्विगवरण , शाखाहरण , बहिर्राहरण , इध्माहरण , सायंदोह , निर्वाप , पत्रीसन्न्हन, बहिरास्तरण
आठ गोत्र संस्थापक
विश्वामित्र , जमदग्नि , भारद्वाज, गौतम, अत्रि , वसिष्ठ , कश्यप , अगस्त्यप्रत्येक गोत्र के साथ १,,३ या ५ ऋषि होते है जो उस गोत्र के प्रवर कहलाते है |धर्मशास्त्र के अनुसार सगोत्र एवं सप्रवर विवाह वर्जित माना जाता है
आठ प्रकार के विवाह
ब्रह्म , प्रजापत्य ,   आर्ष , दैवगन्धर्व , आसुर, राक्षस , पैशाच
सन्यास लेने के पूर्व करने योग्य आठ श्राद्ध
आर्ष , दैव, दिव्य , मानुष , भौतिक, पैतृकमातृ, अत्मश्राद्ध
आठ दान के पात्र
माता- पिता , गुरु , मित्र, चरित्रवान व्यक्ति , उपकारी , दीन, अनाथ एवं गुणसंपन्न व्यक्ति
व्रतो के आठ प्रकार
तिथिव्रत , वार व्रत , नक्षत्र व्रत , योग व्रत, संक्रांति व्रत, ऋतू व्रत , संवत्सर व्रत
दुष्ट अन्न के आठ प्रकार
जाति दुष्ट , क्रियादुष्ट , कालदुष्ट, संसर्ग्ग्दुष्ट, सल्लेखा , रस दुष्ट , परिग्रहण दुष्ट , भाव दुष्ट
भुमिशुद्धि के आठ साधन
सम्मार्जन , प्रोक्षण , उपलेपन, अवस्तरण, उल्लेखन , गोकरण , दहन, पर्जन्यवर्षण
तांत्रिक पूजा मे उपयुक्त आठ मण्डल
सर्वतोभद्र मण्डल, चतुर्लिंगतोभद्र, प्रासाद , वास्तु , गृहवास्तु, ग्रहदेवता मण्डल , हरिहर  मण्डल, एकालिंगतोभेद
आठ योग
यम , नियम, आसन , प्राणायाम , प्रत्याहार , धारणा , ध्यान एवं समाधि
अष्ट लक्ष्मी
आग्घ , विद्या , सौभाग्य , अमृत , काम , सत्य , भोग , एवं योग लक्ष्मी
तांत्रिक क्रिया मे आवश्यक नौ मुद्रायें
आवाहनी, स्थापिनी , संनिधापिनी , सन्निरोधिनी, सम्मुखीकरणी, सकलीकृति , अवगुन्ठनी, धेनुमुद्रा, महामुद्रा 
पितरो की नौ कोटियां
अग्रिष्दात्त, बहिर्षद, आन्यव, सोमप, रश्मिप, उपहूत , आयुन्तु , श्राद्धभुज, नान्दीमुख
नव दुर्गा
शैल पुत्री , ब्रह्मचारिणी , चंद्रघंटा , कुष्मांडा , स्कंदमाता , कात्यायिनी , कालरात्रि , महागौरी एवं सिद्धिदात्री !
पाप के नौ प्रकार
अतिपतक, महापातक, अनुपतक, उपपातक , जातिभ्रंशकर , संकरीकरण , अपात्रीकरण, मलावह, प्रकीर्णक
दस यज्ञपात्र  या याज्ञायुध
रुप्य, कपाल, अग्निहोत्रवहणी, शूर्प , कृष्णाजिन , शम्भा , उलूखल , मुसल, दृषद और उपला, | इनके अतिरिक्त सुरु , जुहू , उपभृत, ध्रुवा, इडा पात्र, पिष्टोद्वपनी इत्यादि अन्य पात्रो का भी यज्ञकर्म मे उपयोग होता है
दस प्रकार के ब्राह्मण
पांच गौड़ और पांच द्रविड़ अथवा देव ब्राह्मण , मुनि ब्राह्मण, द्विज ब्राह्मण , क्षत्र ब्राह्मण , वैश्य ब्राह्मण , शूद्र ब्राह्मण , निषाद ब्राह्मण, पशु ब्राह्मण , म्लेच्छ ब्राह्मणचांडाल ब्राह्मण
अद्वैती सन्यासियों की दस शाखाएं
तीर्थ, आश्रम, वन , अरण्य, गिरी , पर्वत, सागर, सरस्वती , भारतीपुरी
दस महादान
सुवर्ण, अश्व , तिल, हाथी, दासी , रथ, भूमि, घर, दुल्हन , कपिला गाय, सोना य चांदी का दान दाता के बराबर तोलकर ब्राह्मण को  दिया जाता है तब उसे तुलापुरुष  नमक महादान कहते है
पाप मुक्ति के दस उपाय
१. आत्मापराध स्वीकार, २. मंत्रजाप ३. ताप  ४. होम  ५. उपवास ६. दान ७.प्राणायाम  ८. तीर्थयात्रा ९.प्रायश्चित  १०. कठोर पालन
अशुद्ध को शुद्ध करने वाली दस वस्तुएं
जल, मिटटी , इंगुद , अरिष्ट (रीठा), बेल का फल , चावल, सरसों का उबटन, क्षार , गोमूत्र , गोबर
दस दिशाएं
पूर्व, पश्चिम , उत्तर , दक्षिण , इशान , नैॠत्य , वायव्य आग्नेय , आकाश एवं पाताल
विवाह  योग्य ११ नक्षत्र
रोहिणी, मृगशीर्ष, मघा , उत्तर-फाल्गुनी , उत्तराषाढा , उत्तराभाद्रपदा , हस्त , स्वाति , मूल, अनुराधा, रेवती
बारह मास
चैत्र , वैशाख , ज्येष्ठ ,अषाड़ , श्रावन , भाद्रपद ,अश्विन , कार्तिक , मार्गशीर्ष, पौष , माघ , फाल्गुन
बारह राशि
मेष , ब्रषभ , मिथुन , कर्क , सिंह, कन्या , तुला , वृश्चिक , धनु , मकर , कुम्भ , एवं मीन 
बारह  देवतीर्थ
विंध्य की दक्षिण दिशा मे छः नदियाँ - गोदावरी, भीमरथी, तुंगभद्रा, वेणिका, तापी , पयोष्णी
विंध्य की उत्तर दिशा मे छः नदियाँ - भागीरथी, यमुना, सरस्वती, विशोका , वितस्ता (चन्द्र-सूर्य ग्रहण काल मे इन देवतीर्थो मे स्नान श्रेयस्कर माना जाता है |


बारह ज्योतिर्लिंग
सौराष्ट्र मे सोमनाथ, (आंध्र कूर्नुल जिले मे श्री शैल पर) मल्लिकार्जुनमध्य प्रदेश (उज्जैनी ) मे महाकालेश्वर, मध्य प्रदेश (नर्मदा तट पर ओंकार क्षेत्र मे ) ओंकारेश्वर, हिमालय क्षेत्र मे केदारनाथ, महाराष्ट्र (पुणे के पास ) भीमाशंकरकाशी (वाराणसी ) मे  विश्वनाथ, महाराष्ट्र (नासिक के पास  ) त्रयंबकेश्वर, चिताभूमि मे (बिहार)  वैद्यनाथ, दारुकावन  नागेश्वर, सेतुबंध (तमिलनाडु) मे  रामेश्वर और महाराष्ट्र मे औरंगाबाद के पास घृष्णेश्वर!
चौदह  विधाएं
४ वेद, ६ वेदांग, पुराण, न्याय , मीमांसा एवं धर्मशास्त्र | इनमे आयुर्वेद, धनुर्वेद, गान्धर्ववेद और अर्थशास्त्र मिलाकर १८ विधाएँ मणि जाती है, जिनका अध्ययन  ब्रह्मचर्याश्रम मे आवश्यक माना जाता है | आयुर्वेदादि  चार उपवेद छोडकर अन्य १४ धर्मज्ञान के प्रमाण माने जाते है
पंद्रह तिथियाँ
प्रतिपदा , द्वतीय , तृतीय , चतुर्थी ,पंचमी , षष्ठी , सप्तमी , अष्टमी , नवमी , दशमी , एकादशी ,द्वादशी , त्रयोदशी , चतुर्दशी , पूर्णिमा , अमावस्या
सोमयाग  के १६ पुरोहित
होता , मैत्रावारुण, आच्छावाक, ग्रावस्तुत, अध्वर्यु , प्रतिपस्याता , नेष्टा , उन्नेता, ब्रह्मा , ब्रह्मणाच्छंसी , अगिन्ध्र , पोता , उद्गाता , प्रस्तोता , प्रतिहर्ता , सुब्रहण्य
सोलह संस्कार
अन्तर्गर्भ/ दोष मार्जन: गर्भाधान संस्कार · पुंसवन संस्कार · सीमन्तोन्नयन संस्कार
बहिर्गर्भ/ जन्म पश्चात/ गुणाधान: जातकर्म संस्कार · नामकरण संस्कार · निष्क्रमण संस्कार · अन्नप्राशन संस्कार . मुंडन.चू्ड़ाकर्म · विद्यारंभ संस्कार . कर्णवेधन संस्कार · उपनयन संस्कार · वेदारंभ संस्कार · केशांत संस्कार
अन्य: समावर्तन संस्कार · विवाह संस्कार · अन्त्येष्टि संस्कार
१८  प्रकार की शान्तियाँ
अभ शांति , सौम्य , वैष्णवी , रौद्री , ब्राह्मी , वायवी , वारुणी , प्राजापत्य, त्वाष्ट्रीकौमारी, आग्नेय, गांधर्वी , आंगिरसीनैऋती , याम्या , कौबेरी , पर्थिवी एवं एंद्री इन्शातियों के अतिरिक्त विनायक शांती , नवग्रह, उग्ररथ (षट्यब्दिपूर्तिनिमित्त ), भैमरथी, उदकशांती, अमृतामाहाशांती, वास्तुशांति , पुष्याभिषेक शांति इत्यादि शंतियाँ धर्मशास्त्र मे कही गयी है !
चैत्र से लेकर बारह मासों की एकादशियों के क्रमशः नाम
कामदा, वरूथनी | मोहिनी , अपरा | निर्जला , योगिनी | शयनी, कामदा | पुत्रदा , अजा | परिवर्तिनी , इंदिरा | पापांकुशा , रमा | प्रबोधिनी, उत्पति | मोक्षदा, सफला |पुत्रदा, षटतिला  | जया, विजया | आमर्द्की (आमलकी), पापमोचनी | इनमे शयनी (आषाढ़ी ) और प्रबोधिनी (कार्तिकी ) एकादशी का उपोषणादि व्रत सर्वत्र मनाया जाता है |
भगवान  विष्णु के २४ अवतार
१-सनकादी महर्षियों का अवतार, २-वाराह अवतार , ३-नारदावतार, ४-नर नारायण अवतार, ५-कपिल अवतार, ६-दत्तात्रेय अवतार, ७-यज्ञ अवतार, 8- ऋषभ अवतार, ९-प्रथु अवतार, १०-मत्स्य अवतार, ११- कूर्म अवतार, १२-धन्वन्तरी  अवतार, १३-मोहिनी  अवतार, १४- नृसिंह अवतार, १५-वामन अवतार, १६-परशुराम अवतार, १७-व्यास अवतार, १८-राम अवतार, १९-बलराम  अवतार, २०-श्री कृष्ण अवतार, २१-हयग्रीव अवतार, २२-हंस अवतार, २३-बुद्ध अवतार और २४-कल्कि
वैष्णवों  के देवता
अग्नि , सोम ,अग्निष्टोम विश्वदेव , धनवंतरी , कुहू , अनुमति , प्रजापति, द्वावापपृथिवी , स्विष्टकृत(अग्नि ) वासुदेव , संकर्षण , अनिरुद्ध , पुरुष, सत्य , अच्युत , मित्र, वरुण, इंद्र , इन्द्राग्री, वास्तोश्मति इ. |
देवपूजा के उपचार
जल , आसान, आचमन , पञ्चामृत , अनुलेप ( गंध), आभूषण, दीप, कर्पूर आरती , नैवेद्य , ताम्बूल , नमस्कार, प्रदक्षिणा इ.
स्मृतियाँ
मनु , विष्णु, अत्री , हारीत , याज्ञवल्क्य ,उशना , अंगीरा , यम , आपस्तम्ब , सर्वत , कात्यायन , ब्रहस्पति , पराशर , व्यास , शांख्य , लिखित , दक्ष ,शातातप , वसिष्ठ !
विवाह के धार्मिक कृत्य
वधुवर गुणपरीक्षा  , वरप्रेक्षण, वाग्दान , मण्डपवरण, नान्दीश्राद्ध , पुण्याहवाचन, वधूगृहगमन , मधुपर्क, स्नापन, परिधायन , समंजन , प्रतिसरबंध, वधुवर-निष्क्रमण , परस्पर-समीक्षण , कन्यादान , अग्निस्थापना एवं होम, पाणिग्रहण , लाजाहोम, अग्निपरिणयन, अश्मारोहण, सप्तपदी , मूर्धाभिषेक, सुर्योदीक्षण , हृदयस्पर्श , प्रेक्षकानुमंत्रण , दक्षिणादान, गृहप्रवेश , ध्रवारुन्धती दर्शन, हरगौरी पूजन, आर्द्राक्षतारोपण , मंगलसूत्र बंधन , देवकोत्थापन, मंडपोंद्द्वासन | इन विविध कृत्यों मे मधुपर्क, होम, अग्निप्रदक्षिणा , पाणिग्रहण, लाजाहोम, आर्द्राक्षतारोपणविविध महत्वपूर्ण माने जाते है |
व्रतो  मे आवश्यक कुछ कर्तव्य
स्नान , संध्यावंदन , होम, देव्तापूजन , उपवास, ब्राह्मण भोजन, कुमारिका-विवाहिता का भोजन, दरिद्र भोजन , दान, गोप्रदान, ब्रह्मचर्य, भुमिशायण, हविष्यान्न्भक्षण |
धर्मशास्त्र मे निर्दिष्ट महत्वपूर्ण व्रत उत्सव
नागपंचमी ,वा मनसा पूजा, रक्षाबंधन, कृष्ण बंधन, कृष्णजन्माष्टमी , हरतालिका, गणेश चतुर्थी, ऋषिपंचमी , अनंतचतुर्दशी नवरात्रि(दुर्गोत्सव ), विजयादशमी , दीपावली , यमद्वितीया, मकर संक्रांति , वासन पंचमी, महाशिवरात्रि, होलिका एवं ग्रहण, अक्षय तृतीया , व्यासपूजा तथा रामनवमी इत्यादि |
भूतबलि के अधिकारी
कुत्ता, चंडाल, जातिच्युत , महारोगी, कौवे , कीड़े , मकोड़े इत्यादि | भोजन के पूर्व इनको अन्न देना चाहिए |
श्राद्ध के विविध प्रकार
नित्य , नैमित्तिक, पार्णव , एकोद्दिष्ट , प्रतिसावत्सरिक, मासिक, आमश्रद्ध (जिसमे बिना पका हुआअन्न दिया जाता है) , हेमश्राद्ध ( भोजनाभाव मे , प्रवास मे, पुत्रजन्म मे, या  ग्रहण मे  हेमश्राद्ध किया जाता है , स्त्री तथा शूद्र हेम्श्रद्ध कर सकते है )| ध्रुवश्राद्ध, आभ्युदयिक, नान्दीश्राद्ध , महालयश्राद्ध, आश्विन कृष्णपक्ष मे किये जाते है |मातामह श्राद्ध ( दौहित्र प्रतिप्रदा श्राद्ध), अविधवा नवममीश्राद्ध (कृष्णपक्ष की  नवमी को होता है ), जीवश्राद्ध , संघात श्राद्ध (किसी दुर्घटना मे अनेको की एक साथ मृत्यु  होने पर किया जाता है ), वृद्धि श्राद्ध, सपिण्डन, गोष्ठश्रद्धि , शुद्धिश्राद्ध , कर्मांग , दैविक, यात्राश्रद्ध , पुष्टिश्राद्ध , षण्णवती श्राद्ध  आदि | एक वर्ष मे किये जाने वाले लगभग ९६ श्राद्धो का वर्णन मिलता है |
श्राद्ध मे निमंत्रण योग्य पंक्तिपावन ब्राह्मण के गुण:
त्रिमधु (मधु शब्द युक्त तीन वैदिक मंत्रो का पाठक ) , त्रिसुपर्ण का पाठक, त्रिणाचिकेत , चतुर्मेध (अश्वमेध, पुरूषमेध , सर्वमेध, पितृमेध ) के मंत्रो का ज्ञानी , पांच अग्नियों को देने वाला ज्येष्ठसाम का ज्ञानी , नित्य वेदाध्यायी , एवं वैदिक का पुत्र |
दान योग्य पदार्थ
(उत्तम): भोजन, गाय, भूमि , सोना , अश्व , हांथी | (मध्यम ): विद्या , गृह, उपकरण, औषध | (निकृष्ट ): जूते, हिंडोला, गाड़ी, छाता, बर्तन , आसन, दीपक, फल, जीर्ण पदार्थ|
उपपातक (सामान्य पापकर्म)
गोवध, ऋणादान (ऋण को न चुकाना ), परिवेदन ( बड़े भाई से पहले विवाह करना), शुल्क लेकर वेदाध्यापन , स्त्रीहत्या , निन्द्यम जीविका, नास्तिकता, व्रत त्याग , माता-पिता का निष्कासन , केवल अपने लिए भोजन बनाना , स्त्रीधन पर उपजीविका , नास्तिको के ग्रथो का अध्ययन इत्यादि (ऐसे उपपातक ५० तक बताये गए है )|
भूमि की अशुद्धता के कारण
प्रसूति, मरण, प्रेत दहन , विष्टा, कुत्ते, गधे तथा सूअर का स्पर्श ,कोयला, भूसी, अस्थि राख का संचय ( इन कारणों से भूमि की शुद्धि संमार्जनादि से करना आवश्यक है )|
मंगल वृक्ष
अश्वत्थ , औदुम्बर, प्लक्ष, आम्र , न्यग्रोध , पलाश , शमी , बिल्व, आमलक, नीम आदि |
तीर्थ यात्रा मे गंगा तट पर त्यागने योग्य कर्म
शौच , आचमन, केशश्रंगार, अघमर्षण , सूक्त पाठ, देह्मर्दन, क्रीडा, कौतुक, दानग्रहण, सम्भोग, अन्य तीर्थो की प्रशंसा, वस्त्रदान, ताडन , तीर्थ जल को तैरकर पार करना |
पवित्र स्थान
सरोवर, तीर्थस्थल , ऋषि निवास , गोशाला , देवमंदिर , गंगा , हिमालय , समुद्र, और समुद्र मे मिलने वाली नदिया , पर्वत (श्रीमदभागवत  मे पुनीत पर्वतो के २७ नाम दिए है ; ५-१९-१६) |