Tuesday, January 8, 2013

समुद्र मन्थन की कथा के माध्यम से विचार मन्थन की प्रक्रिया का विवेचन


कथा का संक्षिप्त स्वरूप इस प्रकार है कि देवों और दैत्यों ने समुद्र मन्थन के लिए अपनी शक्ति से मन्दराचल को उखाड लिया और उसे समुद्र तट की ओर ले चले । परन्तु सोने का यह पर्वत बहुत ही भारी था, इसलिए उठा न सकने के कारण उन्होंने उसे रास्ते में ही पटक दिया । देवों और दैत्यों के उत्साह को भंग हुआ देखकर भगवान् सहसा प्रकट हुए और उन्होंने मन्दराचल को अपने साथ गरुड पर रखकर उसे समुद्र तट पर पहुंचा दिया । वासुकि नाग को अमृत प्रदान का वचन देकर देवों और दैत्यों ने उसे भी अपने कार्य में सम्मिलित कर लिया । अब सबने मिलकर वासुकि नाग को नेती के समान मन्दराचल में लपेटकर समुद्र मन्थन प्रारम्भ किया । जब समुद्र मन्थन होने लगा तो बलवान देवों और दैत्यों के पकडे रहने पर भी अपने भार की अधिकता और नीचे कोई आधार न होने के कारण मन्दराचल समुद्र में डूबने लगा । तब भगवान ने तुरन्त कूर्म का रूप धारण किया और समुद्र के जल में प्रवेश करके मन्दराचल को ऊपर उठा दिया । उत्साहित देवता और दैत्य पुनः समुद्र मन्थन करने लगे और मन्दराचल कूर्म भगवान की पीठ पर घूमने लगा ।
    समुद्र मन्थन सम्पन्न करने के लिए भगवान ने असुरों में असुर रूप से, देवों में देव रूप से और वासुकि नाग में निद्रा रूप से प्रवेश किया । वे मन्दराचल पर्वत के ऊपर दूसरे पर्वत के समान बनकर उसे अपने हाथों से दबा कर स्थित हो गए । समुद्र मन्थन से पहले - पहल हालाहल नाम का अत्यन्त उग्र विष निकला । उसकी शान्ति के लिए शिव ने उस विष का पान कर लिया । वह विष जल का पाप ही था, जिससे उनका कण्ठ नीला पड गया परन्तु शिव के लिए वह भूषण रूप हो गया । पुनः समुद्र मन्थन से कामधेनु प्रकट हुई जिसे यज्ञोपयोगी घी, दूध आदि प्राप्त करने के लिए ऋषियों ने ग्रहण किया । इसके बाद उच्चैःश्रवा घोडा निकला जिसे बलि ने लेने की इच्छा प्रकट की । तदनन्तर ऐरावत नाम का श्रेष्ठ हाथी निकला जिसके उज्जवल वर्ण के बडे - बडे चार दांत थे । तत्पश्चात् कौस्तुभ मणि प्रकट हुई जिसे अजित भगवान् ने लेना चाहा । इसके बाद कल्पवृक्ष निकला जो याचकों की इच्छाएं पूर्ण करने वाला था । तत्पश्चात् अप्सराएं प्रकट हुई जो अपनी शोभा से देवताओं को सुख पहुंचाने वाली हुई । तदनन्तर शोभा की मूर्ति भगवती लक्ष्मी देवी प्रकट हुई जो भगवान् की नित्य शक्ति हैं । देवता, असुर, मनुष्य सभी ने उन्हें लेना चाहा परन्तु लक्ष्मी जी ने चिर अभीष्ट भगवान् को ही वर के रूप में चुना ।
    तत्पश्चात् समुद्र मन्थन करने पर कमलनयनी कन्या के रूप में वारुणी देवी प्रकट हुई जिसे दैत्यों ने ले लिया । उसके पश्चात् अमृत कलश लेकर धन्वन्तरि भगवान् प्रकट हुए जो आयुर्वेद के ज्ञाता और भगवान् के अंशांश अवतार थे । अब दैत्य धन्वन्तरि से बलात् अमृत कलश छीन ले गए जिससे देवताओं को विषाद हुआ और वे भगवान् की शरण में गए । भगवान् ने अद्भुत एवं अवर्णनीय मोहिनी रूप धारण किया । उस मोहिनी रूप पर मोहित हुए दैत्यों ने सुन्दरी से झगडा मिटा देने की प्रार्थना की और उसकी परिहास भरी वाणी पर ध्यान न देकर उसके हाथ में अमृत कलश दे दिया । मोहिनी ने दैत्यों को अपने हाव - भाव से ही अत्यन्त मोहित करते हुए उन्हें अमृत न पिलाकर देवताओं को अमृत पिला दिया ।
कथा का अभिप्राय
अपने वास्तविक स्वरूप को, अपने होने को जान लेना, पहचान लेना कथा में 'अमृत निकालना' कहा गया है । अमृत का अर्थ ही है - जो मरण धर्म से परे अजर, अमर, अविनाशी है और वह अविनाशी, अमृत तत्त्व केवल आत्मा ही है । आत्म स्वरूप को जानने के लिए अपने ही विचारों का मन्थन करना आवश्यक है जिसे कथा में समुद्र मन्थन कहकर इंगित किया गया है । विचारों के मन्थन का अभिप्राय है - अपने आप को देखना, अपने संकल्पों को देखना, अपने भीतर विद्यमान उन अनेक मान्यताओं, धारणाओं, पूर्व संचित अनुभवों तथा वर्तमान सूचनाओं पर आधारित विचारों को देखना और उन पर चिन्तन करना जिनके कारण मनुष्य आत्म स्वरूप को विस्मृत करके देहभाव में स्थित हो गया है । देह चेतना के संस्कार इतने गहरे हैं कि आत्मस्वरूपता 'मैं आत्मा हूं' का भाव स्मृति से बार - बार छूट जाता है । इस छूटने को ही कथा में मन्दराचल पर्वत का डूबना कहकर इंगित किया गया है । परन्तु मनुष्य इससे घबराए नहीं, क्योंकि अपने वास्तविक स्वरूप (आत्मस्वरूप) में अवस्थित होने के लिए विचार मन्थन की सम्पूर्ण यात्रा विशेष शक्ति और श्रम की मांग करती है ।
    विचार मन्थन की प्रक्रिया से मनुष्य चार प्रकार से लाभान्वित होगा । पहला लाभ यह होगा कि वह चेतना के विस्तार और संकोच की प्रक्रिया को सीख लेगा । देह चेतना में विद्यमान रहने के कारण मनुष्य स्वयं को तथा दूसरे को भी देहस्वरूप मानकर जब व्यवहार करता है, तब उस विस्तारित चेतना की स्थिति में प्रत्येक क्रिया की प्रतिक्रिया होनी स्वाभाविक है । परन्तु आत्मस्वरूप का स्मरण करके चेतना को संकुचित करने का यदि मनुष्य को अभ्यास हो जाएगा तो प्रतिक्रिया के संकट को उपस्थित देखकर वह तुरन्त देहचेतना के विस्तार से सिमटकर आत्मचेतना के संकुचन में स्थित होकर उस प्रतिक्रिया के संकट से अपनी रक्षा कर लेगा । इस प्रक्रिया को कथा में भगवान् का कूर्म अवतार ग्रहण करना कहा गया है । जैसे कूर्म किसी संकट के उपस्थित होने की आशंका होते ही तुरन्त अपने सभी अंगों को सिकोडकर उस संकट से अपनी रक्षा कर लेता है, उसी प्रकार मनुष्य भी जीवन में विभिन्न भूमिकाओं को निभाते हुए प्रतिक्रिया रूपी संकट के आने की आशंका होते ही तुरन्त देह चेतना रूप विस्तार से आत्म - चेतना रूप संकोच में आकर प्रतिक्रिया की विषम स्थिति से स्वयं को बचा लेगा ।
    अपने ही विचारों का मन्थन करते रहने पर दूसरा लाभ यह होगा कि मनुष्य उपयोगी सकारात्मक विचारों तथा अनुपयोगी नकारात्मक विचारों को पृथक् - पृथक् देखने में समर्थ होने लगेगा । इसका परिणाम यह होगा कि वह उपयोगी सकारात्मक विचारों को ही अपने भीतर ग्रहण करके अनुपयोगी नकारात्मक विचारों को बाहर ही छोड देगा । स्वयं को शरीर मात्र मानकर उत्पन्न होने वाले क्रोध, घृणा, राग, द्वेष प्रभृति विचार नकारात्मक कहलाते हैं तथा इसके विपरीत सबके प्रति आत्मभाव रखकर उत्पन्न होने वाले प्रेम, समता, शान्ति आदि विचार सकारात्मक कहे जाते हैं ।
    प्रतिपल उठने वाले अपने समस्त विचारों को ध्यानपूर्वक देखते रहने से तीसरा लाभ यह होगा कि मनुष्य अपनी अच्छाइयों तथा कमजोरियों दोनों को बहुत स्पष्टतापूर्वक देखने में समर्थ होने लगेगा । इसे ही कथा में यह कहकर इंगित किया गया है कि भगवान् ने देवों में देवशक्ति रूप से और असुरों में असुरशक्ति रूप से प्रवेश किया ।
    चौथा लाभ यह होगा कि विचारों के निरन्तर मन्थन से मनुष्य का यह प्रबल भाव कि 'मैं देह हूं' प्रसुप्त हो जाएगा । देहभाव अथवा देहाभिमान के जाग्रत रहने से ही परस्पर सम्बन्धों में व्यवहार करते समय मनुष्य हर समय चोट खाता रहता है, उसके अहंकार को चोट पहुंचती रहती है । परन्तु देहाभिमान के प्रसुप्त होने से अब वह उस देहाभिमान से होने वाली चोट से बचा रहेगा । यहां यह तथ्य ध्यान देने योग्य है कि विचार मन्थन के इस स्तर पर देहाभिमान केवल प्रसुप्त होगा, मूल से विनष्ट नहीं होगा । इसलिए कथा में कहा गया है कि भगवान् ने वासुकि नाग में निद्रा रूप से प्रवेश किया, जिससे उसे रगड से चोट न पहुंचे ।
    इस प्रकार प्रारम्भिक स्तर पर किया गया विचार मन्थन का यह प्रयास मनुष्य को उपर्युक्त वर्णित चार प्रकार की शक्तियों से सम्पन्न करेगा और आत्मस्वरूपता(मन्दराचल) को भी स्थिरता प्रदान करेगा । दूसरे स्तर पर किए गए विचार मन्थन से मनुष्य के देहाभिमानी जीवन से अनेक प्रकार की अशुद्धताएं निकलकर बाहर हो जाएंगी जिन्हें कथा में वासुकि नाग के मुंह से निकला हुआ विष का धुआं कहा गया है । अब उसे ज्ञात हो जाता है कि मैं आत्मा ही जब संकल्प करता हूं तब मन कहलाता हूं और मन से निर्मित हुआ प्रत्येक विचार मेरी अपनी ही रचना है । अब मेरे अपने अधिकार में है कि मैं कैसे विचारों का निर्माण करूं । मेरे ही विचार भावों का निर्माण करते हैं, भाव दृष्टिकोण को बनाते हैं, दृष्टिकोण के आधार पर कर्म होता है, कर्म की बार - बार आवृत्ति आदत में बदल जाती है, आदत से दृष्टि(perception) निर्मित होती है और दृष्टि के अनुसार ही जीवन में सुख अथवा दुःख के रूप में भाग्य का निर्माण होता है । इस ज्ञान से मनुष्य के भीतर विद्यमान सारा क्या, क्यों, कैसे रूप अज्ञान निकल जाता है और उससे मनुष्य की सकारात्मक शक्तियां शान्त एवं पुष्ट होती हैं । इसे ही कथा में वासुकि नाग के मुंह से निकले विषयुक्त धुएं से पहले तो देवों का त्रस्त होना परन्तु बाद में शीतलता को प्राप्त होना कहकर इंगित किया गया है ।
    तीसरे स्तर पर किया गया विचार मन्थन मनुष्य की सम्पूर्ण विचार शृङ्खला में से ही देहभाव रूपी अज्ञान विष को निकाल देता है जिसे कथा में कालकूट और हालाहल कहकर सम्बोधित किया गया है । कालकूट(काल + कूट) का अर्थ है - आत्मविस्मृति के कारण उत्पन्न हुआ वह अज्ञान जो समय के साथ - साथ ढेर के रूप में एकत्र हो जाता है तथा हलाहल(हला + हल) का अर्थ है - वह अज्ञान जो मदिरा के समान मनुष्य को मूर्च्छित करता है । यहां एक तथ्य विशेष रूप से ध्यान देने योग्य है कि तीसरे स्तर पर किया गया विचारों का मन्थन मनुष्य की मनोबौद्धिक क्षमताओं से परे ईश्वरीय सहायता से ही सम्पन्न होता है । इसलिए इसे कथा में अजित भगवान् द्वारा निष्पन्न होते बतलाया गया है ।
    कथा में कहा गया है कि मन्थन करने पर जो विष बाहर निकला, उससे समस्त प्रजा एवं प्रजापति अत्यन्त पीडित हुए और भगवान् सदाशिव की शरण में गए । भगवान् शिव ने विष का पान कर उसे अपने कण्ठ में धारण कर लिया तथा नीलकण्ठ हो जाने के कारण वह विष उनके लिए भूषण रूप हो गया । जैसा कि पहले कहा जा चुका है, विष वह अज्ञान है जो आत्मा की विस्मृति हो जाने तथा देह की स्मृति होने से नाना रूप धारण करके मनुष्य के भीतर एकत्र हो जाता है । जब मनुष्य अपने विचारों को ध्यानपूर्वक देखता ही रहता है और उनका मन्थन करता रहता है, तब शनैः शनैः एक स्थिति ऐसी आ जाती है जब आत्म - विस्मृति आत्म - स्मृति में रूपान्तरित होने लगती है और देह - स्मृति के कारण संगृहीत हुआ सारा अज्ञान रूपी विष बाहर निकल पडता है । बाहर निकलने का अर्थ है - अब मनुष्य को बिल्कुल साफ - साफ दिखाई पडने लगता है कि देह - स्मृति में रहते हुए उसने जीवन में कैसी - कैसी मूढताएं की, कैसी - कैसी अशुद्धियों को धारण किया । यह साफ - साफ दिखाई पडना उसे विक्षुब्ध करता है, बेचैन बनाता है तथा पश्चात्ताप में भी ले जाता है । परन्तु यह स्थिति क्षणिक ही होती है क्योंकि इस व्याकुल स्थिति में उसे जैसे ही अपनी वर्तमान ज्ञानस्वरूपता का भान होता है, वैसे ही वह ज्ञानस्वरूपता उसके अज्ञान को तथा अज्ञान के कारण उत्पन्न हुई समस्त व्याकुलता को पी लेती है, हर लेती है । अज्ञान को हर लेना ही ज्ञान का सौन्दर्य है, ज्ञान की विशिष्टता है । संस्कृत में 'ग्री' धातु विज्ञाने अर्थ में प्रयुक्त होती है । अतः ग्रीवा(कण्ठ) में विष को धारण करने का अर्थ है - ज्ञान में अज्ञान का समाहित हो जाना । शिव के कण्ठ का भूषण रूप हो जाना ज्ञान की भूषणरूपता को ही इंगित करता है । प्रस्तुत संदर्भ में शिव शब्द भी परमात्मा का वाचक न होकर मनुष्य की कल्याणकारिणी ज्ञान चेतना अथवा विज्ञानमय कोश में स्थिति को ही संकेतित करता है ।
    अज्ञान रूपी विष के निकलने पर ही मनुष्य को अद्भुत क्षमताओं अथवा विशेषताओं की प्राप्ति होती है जिन्हें कथा में कामधेनु आदि दस प्रतीकों के माध्यम से निरूपित किया गया है -
१- कथा में कहा गया है कि समुद्र मन्थन से सबसे पहले कामधेनु निकली । वह यज्ञादि के लिए उपयोगी घी दूध देने वाली थी, इसलिए ऋषियों ने उसे ग्रहण कर लिया ।
    धेनु का अर्थ है - मनुष्य की प्रकृति अर्थात् मन, बुद्धि, इन्द्रियां आदि । जब मनुष्य की प्रकृति उसके निर्देश के अनुसार वर्तन करने लगती है, तब कामधेनु कहलाती है । सामान्य अवस्था में जीवन जीते हुए मनुष्य की प्रकृति मनमाना आचरण करती है । मनुष्य क्रोध नहीं करना चाहता, परन्तु क्रोध आ जाता है । मनुष्य काम में, लोभ में पडना नहीं चाहता, परन्तु काम से, लोभ से ग्रस्त हो जाता है । आत्म स्वरूप में स्थिर होने पर मनुष्य अपनी प्रकृति का स्वामी बन जाता है । अब प्रकृति वही प्रस्तुत करती है जैसा वह निर्देश करता है । ऐसी नियन्त्रित प्रकृति ही मनुष्य को जीवन - यज्ञ के लिए उपयोगी श्रेष्ठ सकारात्मक संकल्पों अथवा विचारों के रूप में सार तत्त्व प्रदान करने में समर्थ होती है जिसे कथा मे घी, दूध कहकर इंगित किया गया है ।
२- कथा में कहा गया है कि समुद्र मन्थन से उच्चैःश्रवा अश्व निकला जिसे बलि ने लेना चाहा ।
    उच्चैःश्रवा (उच्चैः + श्रवा) का अर्थ है - कोलाहल और अश्व शब्द मन का प्रतीक है । जब तक मनुष्य के मन में अज्ञान के कारण जीवन में घटित घटनाओं को लेकर क्या, क्यों, कैसे के रूप में अनेकानेक प्रश्न बने रहते हैं, तब तक विचारों का कोलाहल होना स्वाभाविक ही है । परन्तु आत्मस्वरूप में स्थिति से ज्ञान हो जाने के कारण जैसे - जैसे ये सब प्रश्न विदा होते हैं, वैसे - वैसे विचारों का कोलाहल भी समाप्त होता जाता है । बलि का अर्थ है - बल । बलि को दैत्यों का अधिपति कहा गया है, अतः नकारात्मक मन का बल ही बलि है । चूंकि नकारात्मक मन में ही विचारों का कोलाहल विद्यमान होता है, इसलिए प्रतीक रूप में यह कहना उचित ही है कि उच्चैःश्रवा अश्व को बलि ने लेना चाहा ।
३- समुद्र मन्थन से ऐरावत नाम का श्रेष्ठ हाथी निकला जिसके उज्ज्वल वर्ण के चार बडे - बडे दांत थे ।
    ऐरावत का अर्थ है - इरावती से उत्पन्न । इरावती शब्द प्रकृति अथवा चेतना का वाचक है और वेदों में इसके नदी, वाक् व धेनु नाम से तीन स्तर प्राप्त होते हैं । प्रस्तुत संदर्भ में ऐरावत शब्द उच्च स्तर की प्रकृति अथवा चेतना(इरावती ) से उत्पन्न एक ऐसी विशिष्टता को इंगित करता प्रतीत होता है जो बुद्धि से संयुक्त होकर उसे विशिष्ट बना देती है । पौराणिक साहित्य में हाथी सूक्ष्म बुद्धि का प्रतीक है । अतः ऐरावत हाथी विशिष्ट प्रकार की निर्णयात्मक क्षमता से युक्त सुन्दर सूक्ष्म बुद्धि का प्रतिनिधित्व करता प्रतीत होता है । चार दांतों के माध्यम से इस विशिष्ट बुद्धि के ही चार व्यापारों( वृत्तियों) को इंगित किया गया है । ये चार व्यापार हैं - जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति और तुरीय । जाग्रत नामक व्यापार में बुद्धि मनुष्य को उसके वास्तविक स्वरूप के प्रति जाग्रत करती है । स्वप्न नामक व्यापार में यथायोग्य उचित संकल्पों को धारण कराती है । सुषुप्ति नामक व्यापार में वह अनावश्यक, व्यर्थ संकल्पों को विसर्जित कराती है और तुरीय नामक व्यापार में मनुष्य को उसके वास्तविक स्वरूप में अवस्थित कराती है । दन्त शब्द लक्ष्य का भी वाचक है । अतः ऐसा भी कह सकते हैं कि विशिष्ट सूक्ष्म बुद्धि उपर्युक्त वर्णित चार लक्ष्यों से युक्त होती है ।
४ - समुद्र मन्थन से कौस्तुभ मणि का प्रादुर्भाव हुआ जिसे अजित भगवान् ने लेना चाहा ।
    कौस्तुभ शब्द कुस्तु + भव से बना है । कुस्तु का अर्थ है - समुद्र तथा भव का अर्थ है - उत्पन्न । अतः कौस्तुभ का अर्थ हुआ - समुद्र से उत्पन्न । मणि शब्द स्वतः प्रकाशमान वस्तु अथवा भाव का वाचक है । अतः कौस्तुभ मणि के प्रादुर्भाव का अर्थ है - मनुष्य द्वारा अपने ही विचार - सागर का मन्थन करने से मणि की भांति प्रकाशमान साक्षी भाव का उत्पन्न होना । साक्षी भाव का अर्थ है - किसी भी व्यक्ति अथवा वस्तु को आसक्ति से रहित होकर देखना । आसक्तिरहित होकर देखने पर ही मनुष्य इस जगत में किसी भी व्यक्ति अथवा वस्तु के प्रति राग अथवा द्वेष न रखकर स्व - स्वरूप (आत्म भाव) में स्थिर बना रहता है । इसीलिए साक्षीभाव मनुष्य को सुख - दुःख दोनों से ऊपर उठा देता है ।
- समुद्र मन्थन से स्वर्ग की शोभा बढाने वाला कल्पवृक्ष निकला जो याचकों की इच्छाएं पूर्ण करने वाला था । कल्प वृक्ष संकल्प शक्ति अथवा इच्छा शक्ति को इंगित करता है । कल्प वृक्ष द्वारा कामनाओं को पूर्ण करने का अर्थ है - संकल्प शक्ति का आश्रय लेकर सभी संकल्पों को पूर्ण करना । कल्प वृक्ष की स्थिति स्वर्ग में होने का अर्थ है - स्व (स्व स्वरूप) में स्थित होने पर ही मनुष्य संकल्पवान् होता है ।
- समुद्र मन्थन से अप्सराएं प्रकट हुई जो देवताओं को सुख पहुंचाने वाली हुई । अप्सरा शब्द अप् अव्यय के साथ सृ धातु के योग से बना है, जिसका अर्थ है - नीचे की ओर बहना या चलना । भाव जब ऊपर से नीचे की ओर चलते हैं, तब अप्सरा कहलाते हैं । इस आधार पर आत्मस्वरूप में स्थित होने पर सुख, शान्ति, प्रेम, आनन्द आदि भाव उच्च स्थित आनन्दमय कोश से नीचे के कोषों में बहने लगते हैं अथवा ऐसा भी कह सकते हैं कि आत्मा के सुख, शान्ति आदि भाव जीवन में अभिव्यक्त होने लगते हैं । इसे ही अप्सराओं का प्रकट होना कहा गया है ।
- समुद्र मन्थन से शोभा की मूर्ति भगवती लक्ष्मी प्रकट हुई जो भगवान् की नित्य शक्ति हैं । उन्होंने भगवान् को ही वर के रूप में चुना । विचारों का सतत् मन्थन करने से देहभाव रूपी अज्ञानविष के निकल जाने पर मनुष्य को एक अद्भुत आत्मपरक दृष्टि प्राप्त होती है जिसे यहां भगवती लक्ष्मी कहकर निरूपित किया गया है । आत्मपरक विचार से आत्मपरक दृष्टि तथा देहपरक विचार से देहपरक दृष्टि का निर्माण होता है । जीवन को देखने की यही दो दृष्टियां हैं । जैसे  आंखों पर काला चश्मा लगा लेने से सफेद वस्तु भी काली ही दिखाई पडती है, उसी प्रकार देह दृष्टि से देखने पर अपनी मलिन दृष्टि के अनुसार सामने वाला व्यक्ति भी मलिन ही दिखाई पडता है । परन्तु इसके विपरीत, जैसे काला चश्मा उतार देने पर सफेद वस्तु सफेद ही दिखाई पडती है, उसी प्रकार आत्मदृष्टि होने पर जो व्यक्ति अथवा वस्तु जैसी है, वैसी ही दिखाई पडने लगती है । आत्मपरक दृष्टि एक शुद्ध, निर्मल दृष्टि है । चूंकि आत्मपरक दृष्टि सदैव आत्मस्वरूप से ही संयुक्त रहती है, इसलिए इस तथ्य को कथा में यह कहकर इंगित किया गया है कि लक्ष्मी ने विष्णु को ही वर के रूप में चुना ।
- कथा में कहा गया है कि समुद्र मन्थन करने पर कमलनयनी कन्या के रूप में वारुणी देवी प्रकट हुई जिसे दैत्यों ने ले लिया । वेदों में वरुण शब्द का प्रयोग परमात्मा और प्रकृति दोनों अर्थों में हुआ है, परन्तु यहां वारुणी शब्द के रूप में प्रकृतिवाची वरुण को ही ग्रहण किया गया है । जो वरुण से उत्पन्न हो, उसे वारुणी कहा जा सकता है । अतः वारुणी देवी प्रकृति से उत्पन्न उस विशिष्ट स्थिति को इंगित करती है जो मनुष्य को मोह में डालकर रखती है । सामान्य अर्थों में वारुणी शब्द मदिरा का भी वाचक है, अतः मदिरा के समान मोह में डालकर रखने वाली प्रकृति वारुणी है । यह वारुणी देवी (अर्थात् मोह) व्यक्तित्व की आन्तरिक पर्तों में छिपी रहती है और केवल तभी प्रकट हो पाती है जब मनुष्य सतत् अपने विचारों का मन्थन करता है । चूंकि मनुष्य को मोह में फंसाकर रखने वाली यह प्रकृति(वारुणी देवी) आत्मज्ञान होने तक नित नूतन ही बनी रहती है, इसीलिए इसे कमलनयनी कन्या कहकर इंगित किया गया है ।
- समुद्र मन्थन करने पर अन्त में अमृत कलश लेकर भगवान् धन्वन्तरि प्रकट हुए जो आयुर्वेद के ज्ञाता तथा भगवान् के अंशांश अवतार थे । यहां तीन शब्दों को समझ लेने पर ही कथन का तात्पर्य स्पष्ट होगा । प्रथम - अमृत का अर्थ है - अ + मृत, अर्थात् ऐसी कोई वस्तु या भाव या विचार या स्थिति जो मर नहीं सकती, अविनाशी है । अविनाशी तत्त्व केवल चैतन्य सत्ता है जिसे आत्मा कहा जाता है । द्वितीय - भगवान् शब्द मनुष्य में आविर्भूत अथवा अवतरित हुई विशिष्ट चेतना का वाचक है । तृतीय - धन्वन्तरि शब्द दो शब्दों से मिलकर बना है - धनु तथा अन्तर । पौराणिक साहित्य में धनु/धनुष शब्द 'संकल्प' को इंगित करता है तथा अन्तर शब्द एक अव्यय है जिसका अर्थ है - पकडना, ग्रहण करना, में, अन्दर , मध्य में इत्यादि । इन तीन शब्दों के अर्थ को ध्यान में रखते हुए उपर्युक्त कथन का अर्थ होगा - मनुष्य के भीतर एक ऐसी विशिष्ट चेतना का आविर्भाव होना, जो आत्मा अर्थात् 'मैं आत्मा हूं' के संकल्प से युक्त होती है, अथवा जिसके संकल्प में 'मैं आत्मा हूं' यह सन्निहित होता है । सरल रूप में अमृत कलश लेकर भगवान् धन्वन्तरि के प्रकट होने का अर्थ है - 'मैं आत्मा हूं' के दृढ संकल्प से युक्त विशिष्ट चेतना का मनुष्य में अवतरण होना ।
    आयुर्वेद (आयु: + वेद) का अर्थ है - आयु अर्थात् जीवन - अवधि को जानने वाला । 'मैं आत्मा  हूं' इस संकल्प में स्थित मनुष्य यह भलीभांति जान जाता है कि मैं आत्मा तो अमर हूं, अविनाशी हूं । विनाश केवल शरीर का है, मुझ आत्मा का नहीं ।
१० - समुद्र मन्थन से जो अमृत कलश निकला, उसे दैत्यों ने छीन लिया । परन्तु देवों के उदास होने और भगवान् का स्मरण करने पर भगवान् ने मोहिनी स्वरूप धारण कर, दैत्यों में फूट डालकर, उनको मोहित करके अमृत देवों को पिला दिया । प्रस्तुत कथन संकेत करता है कि विचारों के सतत् मन्थन से 'मैं आत्मा हूं' इस ज्ञान के आविर्भूत हो जाने पर भी अहंकार आदि कुछ नकारात्मक विचारों से पूर्णतया मुक्ति नहीं मिलती । यह नकारात्मकता मनुष्य की आत्मस्वरूपता को हानि पहुंचाती हैं और इससे उसकी सकारात्मक शक्तियां भी व्यथित होती हैं । परन्तु यदि परमात्मा का स्मरण करते हुए सतत् विचार मन्थन किया जाए, तब एक दिन मनुष्य में स्वीकृति भाव के रूप में एक विशिष्ट चेतना अवतरित होती है जिसे कथा में भगवान् का मोहिनी अवतार कहकर निरूपित किया गया है । स्वीकृति भाव का अर्थ है - जो जैसा है, उसे वैसा ही स्वीकार कर लेना । उसे बदलने, दबाने अथवा मिटाने की चेष्टा न करना । यहां इस महत्त्वपूर्ण तथ्य को प्रतिपादित किया गया है कि दमन द्वारा कभी भी नकारात्मकता का शमन नहीं किया जा सकता । दमन से शमन होता है - यह मनुष्य की एक भ्रमपूर्ण धारणा है । किसी भी व्यक्ति में विद्यमान नकारात्मक भाव का दमन करने से प्रतिक्रिया स्वरूप अपने ही भीतर विद्यमान नकारात्मकता प्रबल और पोषित होती है । इसके विपरीत, किसी भी व्यक्ति में विद्यमान नकारात्मकता के प्रति स्वीकार भाव रखने से अपने भीतर विद्यमान नकारात्मकता शनैः - शनैः ह्रास को प्राप्त हो जाती है और सकारात्मक भावों - सुख, शान्ति, शुद्धता, प्रेम, ज्ञान, आनन्द, शक्ति आदि को पुनर्जीवन प्राप्त होता है । स्वीकार भाव के प्रभाव से सुख, शान्ति प्रभृति आत्मिक गुणों का जीवन में प्रकट हो जाना ही मोहिनी द्वारा देवताओं को अमृत पिलाना है । चूंकि स्वीकृति भाव से व्यक्तित्व आकर्षक और मोहक बनता है, इसीलिए चेतना के इस विशिष्ट स्वरूप को मोहिनी नाम देना सर्वथा उचित ही है ।
    कथा के शेष प्रतीकों में, घास तथा तिनके हमारी मान्यताओं तथा धारणाओं के, लताएं हमारे पूर्व संचित अनुभवों के तथा ओषधियां हमारे वर्तमान सूचनापरक ज्ञान के प्रतीक हो सकते हैं । आत्मस्वरूप में स्थित होने के लिए इन सबका मन्थन अनिवार्य है ।

Thursday, January 3, 2013

षोडश संस्कार और उनका रहस्य - २

गर्भाधान संस्कार:
  • हिन्दू धर्म संस्कारों में गर्भाधान—संस्कार प्रथम संस्कार है। यहीं से बालक का निर्माण होता है। गृहस्थाश्रम में प्रवेश करने के पश्चात दम्पती-युगल को पुत्र उत्पन्न करने के लिए मान्यता दी गयी है। इसलिये शास्त्र में कहा गया है कि - उत्तम संतान प्राप्त करने के लिए सबसे पहले गर्भाधान-संस्कार करना होता है। पितृ-ऋण उऋण होने के लिए ही संतान-उत्पादनार्थ यह संस्कार किया जाता है। इस संस्कार से बीज तथा गर्भ से सम्बन्धित मलिनता आदि दोष दूर हो जाते हैं। जिससे उत्तम संतान की प्राप्ति होती है।
  • माता-पिता के रज एवं वीर्य के संयोग से संतानोत्पत्ति होती है। यह संयोग ही गर्भाधान कहलाता है। स्त्री और पुरुष के शारीरिक मिलन को गर्भाधान-संस्कार कहा जाता है। गर्भाधान जीव का प्रथम जन्म है, क्योंकि उस समय ही जीव सर्वप्रथम माता के गर्भ में प्रविष्ट होता है, जो पहले से ही पुरुष वीर्य में विद्यमान था। गर्भ में संभोग के पश्चात वह नारी के रज से मिल कर उसके (नारी के) डिम्ब में प्रविष्ट होता है और विकास प्राप्त करता है।
  • गर्भस्थापन के बाद अनेक प्रकार के प्राकृतिक दोषों के आक्रमण होते हैं, जिनसे बचने के लिए यह संस्कार किया जाता है। जिससे गर्भ सुरक्षित रहता है। माता-पिता द्धारा खाये  एंव विचारों का भी गर्भस्थ शिशु पर प्रभाव पडता है। माता-पिता के रज-वीर्य के दोषपूर्ण होने का कारण उनका मादक द्र्व्यों का सेवन तथा अशुद्ध खानपान होता है। उनकी दूषित मानसिकता भी वीर्यदोष या रजदोष उत्पन्न करती है। दूषित का वृक्ष दूषित ही होगा। अ‍तः मंत्रशाक्ति से बालक की भावनाओं में परिवर्तन आता है, जिससे वह दिव्य गुणों से संपन्न बनता है। इसलिए गर्भाधान-संस्कार की आवश्यकता होती है।
  • दांपत्य-जीवन का सर्वोच्च उद्देश्य है - श्रेष्ठ गुणों वाली, स्वस्थ, ओजस्वी, चरित्रवान और यशस्वी संतान प्राप्त करना। स्त्री-पुरुष की प्राकृतिक संरचना ही ऐसी है की यदि उचित समय पर संभोग किया जाए, तो संतान होना स्वाभाविक ही है, किंतु गुणवान संतान प्राप्त करने के लिए माता-पिता को विचारपूर्वक इस कर्म में प्रवृत्त होना पड़ता है। श्रेष्ठ संतान की प्राप्ति के लिए विधि-विधान से किया गया संभोग ही गर्भाधान-संस्कार कहा जाता है। इसके लिए माता- को शारीरिक और मानसिक रुप से अपने आपको तैयार करना होता है, क्योंकि आने वाली संतान उनकी ही  का प्रतिरुप है। इसलिए तो पुत्र को आत्मा और पुत्री को आत्मजा कहा जाता है।
गर्भाधान के संबध में स्मृतिसंग्रह में लिखा है -
निषेकाद् बैजिकं चैनो गार्भिकं चापमृज्यते।
क्षेत्रसंस्कारसिद्धिश्च गर्भाधानफलं स्मृतम्।।
अर्थात् विधिपूर्वक संस्कार से युक्त गर्भाधान से अच्छी और सुयोग्य संतान उत्पन्न होती है। इस संस्कार से वीर्यसंबधी पाप का नाश होता है, दोष का मार्जन तथा क्षेत्र का संस्कार होता है। यही गर्भाधान-संस्कार का फल है।
  • पर्याप्त खोजों के बाद चिकित्साशास्त्र भी इस निष्कर्म पर पहुँचा है की गर्भाधान के समय स्त्री-पुरुष जिस भाव से भावित होते हैं, उसका प्रभाव उनके रज-वीर्य में भी पड़ता है। अतः उस रज-वीर्यजन्य संतान में माता-पिता के वे भाव स्वतः ही प्रकट हो जाते है -
आहाराचारचेष्टाभिर्यादृशोभिः समन्वितौ।
स्त्रीपुंसौ समुपेयातां तयोः पुतोडपि तादृशः ।।
अर्थात स्त्री और पुरुष जैसे आहार-व्यवहार तथा चेष्टा से संयुक्त होकर परस्पर समागम करते हैं, उनका पुत्र भी वैसे ही स्वभाव का होता है।
गर्भाधानकाल - गर्भाधान के समय वधू १६ वर्ष से अधिक वय की तथा सज्ञान होनी चाहिए । वह प्रथम रजोदर्शन से तीन वर्षो तक (३६ बार) रजोदर्शन से शुद्ध हो चुकी होनी चाहिए ।
  • सन्तानार्थी पुरुष ऋतुकाल में ही स्त्री का समागम करे, पर-स्त्री का सदा त्याग रखे। स्त्रियों का स्वाभाविक ऋतुकाल रजो-दर्शन से 16 रात्रि पर्यन्त है। इसमे प्रथम चार रात्रियों में तो स्त्री-पुरुष सम्बन्ध होना ही नहीं चाहिए, ऐसा समागम व्यर्थ ही नहीं होता अपितु महा रोग कारक भी है। इसी प्रकार 11वीं और तेरहवी रात्रि भी गर्भाधान के लिए वर्जित है। शेष दस रात्रियां ठीक है। इनमें भी जो पूर्णमासी, अमावस्या, चदुर्दशी व अष्टमी (पर्व) रात्रि हो उसमें भी स्त्री-समागम से बचा रहे। छ्ठी, आठवी दशवी, बारहवी, चौदहवी और सोलहवी ये छः रात्रि पुत्र चाहने वाले के लिए तथा पाचंवी, सातवीं, नवीं और पन्द्रहवीं-ये चार रात्रियां कन्या की इच्छा से किये गये गर्भाधान के लिए उत्तम मानी गई है। ऋतुस्नान के बाद स्त्री जिस प्रकार के पुरुष का दर्शन करती है, वैसा ही पुत्र उत्पन्न होता है। अतः जो स्त्री चाहती है कि मेरे पति के समान गुण वाला या अभिमन्यु जैसा वीर, ध्रुव जैसा भक्त, जनक जैसा आत्मज्ञानी, कर्ण जैसा दानी पुत्र हो, तो उसे चाहिए की ऋतुकाल के चौथे दिन स्नान आदि से पवित्र होकर अपने आदर्श रुप इन महापुरुषों के चित्रों का दर्शन तथा सात्त्विक भावों से उनका चिंतन करें और इसी सात्त्विकभावों में योग्य रात्रि को गर्भाधान करावे। रात्रि के तृतीय प्रहर (12 से 3 बजे) की संतान हरिभक्त और धर्मपरायण होती है।
  • संतानप्राप्ति के उद्देश्य से किए जाने वाले संभोग के लिए अनेक वर्जनाएं भी निर्धारित की गई है, जैसे गंदी या मलिन-अवस्था में, मासिक धर्म के समय, प्रातः या सायं की संधिवेला में अथवा चिंता, भय, क्रोध आदि मनोविकारों के पैदा होने पर गर्भाधान नहीं करना चाहिए। दिन में गर्भाधान करने से उत्पन्न संतान दुराचारी और अधम होती है। दिति के गर्भ से हिरण्यकशिपु जैसा महादानव इसलिए उत्पन्न हुआ था कि उसने आग्रहपूर्वक अपने स्वामी कश्यप के द्धारा संध्याकाल में गर्भाधान करवाया था। श्राद्ध के दिनों, पर्वों व प्रदोष-काल में भी संभोग करना शास्त्रों में वर्जित है।
गर्भाधान मे लग्न शुद्धी:-
 (1/4/7/10/5/9/)केंद्र मे शुभ गृह हों ,3,6,11 मे पाप गृह हों पुरुष गृह ( सूर्य,मंगल,गुरु ) लग्न को देखते हों एसे लगनों के विषम राशी के नवांश मे चंद्रमा की स्तिथी हो , रजोदर्शन मे सम रात्रियों ( 6/8/10/12/14/16/) मे चित्रा,पुनर्वसु,पुष्य और अश्विनी मे से कोई भी नक्षत्र हो तो गर्भाधान निश्चयमेव शुभतम होता है ।

Wednesday, January 2, 2013

षोडश संस्कार और उनका रहस्य -१



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